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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

37

घर अगर बेचा न गया होता तो भी एक बात होती। इन नन्दी भृंगी दोनों को लेकर पिताजी मज़े से रह लेते। हमलोग बीच-बीच में जाकर खोज-खबर ले लेते। ...अपनी-अपनी घर गृहस्थी को भी दाँव पर लगाने का सवाल पैदा न होता। ...बाद में जो होना होता वह होता। अपना अपना हिस्सा तो पाते ही। माँ ने भी मर कर समस्या का समाधान कर दिया है। पिताजी ने जाने क्यों अचानक मकान...

असल में यही तो उन सबको हमेशा काम्य था ...यह बात बेटों-बहुओं को इस समय याद न आई। और फिर इशारे से कभी कहा भी तो नहीं था। पर इसकी जड़ है 'दीदी' ...गनीमत है आज तक यह बात अज्ञात है।

अगर मालूम हो जाता तो दीदी को 'कटघरे' में खड़ा करके ही दम लेते। भले ही बात उनके मनोनुकूल क्यों न हो या उस समय रही हो पर इस समय तो प्रतिकूल जा रही है। इसलिए अभी अगर 'कार्य-कारण' का भेद खुल जाए तो अपराधी को कटघरे में क्यों न खड़ा करें?

अहोभाग्य कि ऐसा नहीं हुआ-अभी तक 'राज़' राज ही बना है।

इसके अलावा-

अगर ये बात खुल जाए कि सुनेत्रा का नालायक बेटा मुफ्त में पा गये तीन लाख रुपये को उड़ा रहा है, तो? विस्फोट नहीं होगा?

यह तो फिर भी भाई लोग यह सोचकर निश्चिन्त हैं कि दीदी का 'भविष्य' सुरक्षित है। उन पर कभी कोई खरोच नहीं आयेगी। लड़कियों का भाग्य...कौन जाने, कब क्या हो? जीजा जी ही भीतर ही भीतर क्या कर रहे हैं यही कोई बता सकता है क्या? लोगों ने तो हमेशा से उन्हें 'कंजूस' ही देखा है। असल में वह कंजूसी है या 'दारिद्र' यह कौन कह सकता है।

बातें, बातें और बातें।

अविच्छन्न बातें-लगातार प्रवाहित हो रही थी बातों की धाराएँ बाहर से कुछ पता नहीं चल सकता था देखने पर ...बस यही अच्छाई थी।

लेकिन सोमप्रकाश अभी तक कहाँ क्या कर रहे हैं?

सोमप्रकाश को अपनी एक चीज नहीं मिल रही थी। सोचा था उसे सबको दिखलाएँगे और इसीलिए उठकर लेने चले आए थे कि सबके इकट्ठा रहते रहते दिखला दें।

इस दिखाने से उन सबकी चिन्ता दूर हो जायेगी। सीने से पत्थर उतर जायेगा।

आ हा! बेचारे।

सोच-सोचकर परेशान हुए जा रहे हैं कि 'सोमप्रकाश' नामक एक गुरुभार वाले द्रव्य को वहन करने के लिए कौन अपनी गर्दन बढ़ाये?

सोमप्रकाश ने तो पहले ही इसके प्रतिकार की व्यवस्था कर रखी है-बता देने से सबको चैन पड़ेगा। शान्ति मिलेगी।

लेकिन ढूँढ़ने पर भी मिल नहीं रहे थे, उनके स्थिरकृत 'शेषाश्रय' ओल्ड होम के कागज़ात। भर्ती होने वाले फॉर्म के जेखस कॉपी के साथीं 'आश्रय' की विराट इमारत की बाहरी और भीतरी हिस्सों की तरह-तरह की तस्वीरें। कॉमऩरूम, डाइनिंग हाल बेडरूम्स, बाथरूम्स, छोटी बालकनियों की। अति आधुनिक साज-सामान समेत उस बाथरूम की छवि बड़ी ही आकर्षक है।

बड़ा भारी कम्पाउण्ड, बगीचा बड़ा ही आकर्षक चित्र था वह भी। और भी बहुत कुछ था। साथ ही नियमावली, कार्यक्रम वगैरह की तालिका समेत एक बुकलेट जिसके कवर पर शेषाश्रय की इमारत का चित्र। एक सुरम्य भवन।

इन्हीं सब चीजों को लेने के लिए उठकर आए थे।

लेकिन ताज्जुब है, जल्दी से मिला नहीं। और तभी याद आया कि इन लोभनीय चित्रों को सुकुमारी को देखने के लिए दिया था। उस समय कहा था-'जानती हो, बगल-बगल दो कमरे बुक किए जा सकते हैं और दो बेड वाला एक बड़ा कमरा समेत एक अपार्टमेन्ट भी मिल सकता है। बताओ तुम्हें क्या पसन्द है?'

'बुड्ढा-बुढ़िया एक कमरे में?'

हँस दी थी सुकुमारी।

सोमप्रकाश भी हँसे थे-'आहा, डबल बेड वाला नहीं है।...फिर भी तुम अभी भी सोच लो कि तुम ओल्ड होम से ही जाकर प्रतिष्ठित होगी या लड़कों के पास रहोगी?'

सुकुमारी ज़ोर डालते हुए बोलीं-'तुम्हें छोड़ कर?'

'अरे बाबा...मेरी बात छोड़ो। हमेशा का ऐसा ही हूँ। लेकिन तुम्हारा 'संसारी मन' शायद वैसी जगह जाकर...'

'मेरा मन? उसे तुम समझते हो?' भौंहे माथे पर चढ़ाकर पूछा था सुकुमारी ने। फिर कहा था-'मेरी  'गृहस्थी' ही क्या है? जानते हो?...तुम्हारे साथ वनवास जाना पड़े तो वह भी अच्छा है...तुम्हें छोड़कर स्वर्ग भी नहीं जाऊँ।'

हमेशा 'बात की पक्की' रही हो तुम सुकुमारी...वादा खिलाफी कर बैठीं? हाँ कागज़ात सुकुमारी को देखने दिया था। याद आया तो चले आये सुकुमारी के कमरे में।

ज़रा ढूँढ़ते ही मिल गया था।

सुकुमारी का दैनिक प्रयोग में आने वाला एक चाबीविहीन लकड़ी का बक्स था-उसी में।

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