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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

35

लड़का, माने सुनेत्रा का लड़का दूर रहकर भी और हज़ारों काम के झमेले के बीच बार-बार सोच रहा था-बारह तारीख को कुछ किया जा सकता है या नहीं?

अगर एक बार फुर्र से उड़कर एयरपोर्ट से धाँय से दौड़कर धम्म से बरामदे पर कूद पड़ूँ और चिल्लाऊँ-'मैं आ गया। आ गया आ गया-लेकर हँसी रूप और गान।'

न हो सका। न पकड़ सका। किसी तरह से भी नहीं।

एयरपोर्ट पर आकर उतरा तेरह तारीख को। मन-ही-मन बोला-'अनलकी थर्टीन।' फिर भी रास्ते भर आते-आते सोचता रहा कि जाते ही कहना है-दिद्मा, कल के भोज में से बासी-वासी कुछ पड़ा है क्या? चाटने भर को गोश्त, रूखा-सूखा फ्राइड राइस...'

परन्तु घर के सामने पहुँचा तो काफी आशान्वित हुआ। घर जैसे भरा-भरा लगा। गेट के पास चबूतरे पर चढ़ने वाली सीढ़ी पर काफी जूते रखे थे।

इसके मतलब कल का उत्सव आज भी चल रहा है।

ताक-झाँक कर भीतर देखने की कोशिश की। उसे लगा-उसे अपनी माँ दिखाई दीं। सीढ़ी से उतर आई दोनों हाथों से थाली पकड़े।

अब कैसी चिन्ता?

भड़भड़ा कर घुस आया-दस-बीस जोड़े जूते लाँघते-फाँदते। और घुसकर ही झटके से खड़ा हो गया-'इसके मतलब?'

'मतलब समझने में तो देर लगेगी ही?

सबको साथ लेकर खुशियाँ मनाने के लिए, दिद्मा... इतने सारे लोगों के बीच गले में फूलों की माला पहने एक छोटे-से पीढ़े पर बैठी रहेंगी? अपने दाहिने बाएँ फूलों के गुलदस्ते सजाए? उनके सामने पूजा का थाल रखा होगा? और बड़े मामा, भक्त हनुमान की तरह उनके सामने हाथ जोड़े बैठे होंगे? मन्त्रपाठ करते हुए। लेकिन वह क्या दिद्मा हैं? या कि दिद्मा का चित्र?

हाथ में पकड़ी अटैची पटक दी दीवाल के पास उसने। चिल्ला उठा-'माँ? इसके माने?'

'हड़बड़ा कर सुनेत्रा उसके पास चली आईं-'तू? तू कैसे? तुझे किसने खबर दी?'

'मुझे? मुझे कोई क्यों खबर करेगा? मैं हूँ कौन?...पर मामदू? तुम ने भी अपने ताकडुमाडुम के साथ ऐसा बिट्रे किया? मुझे एक बार बताया तक नहीं? मैं साला नाचते हुए सरप्राइज देने आया हूँ...क्या दिद्मा का श्राद्ध देखने? ठीक है।'

कहकर अटैची उठाकर तीर की गति से निकल गया।

'अरे, अरे...', सुनेत्रा उसके पीछे दौड़ी पर दरवाज़े के पास ही बैठे उसके पति ने गम्भीर आवाज़ में कहा-'जाने दो।'

निचले हिस्से के आँगन की सफाई करके वहीं व्यवस्था की गई थी। पूजागृह से सत्यनारायण की पूजा वाला पीढ़ा उतर लाया गया था और उसी पर सुकुमारी की वृहत एनलार्ज फोटो रखी गई थी।

यह तस्वीर बनवा लाया था अभिमन्यु। एक अभिनव घटना। हमेशा जो कौड़ी-कौड़ी सहेजता रहा है-उसने क्या सोचकर धाँय से इतना बड़ा खर्च कर डाला?

लड़कों ने सन्तुष्ट होकर कहा था-'आपने इतना पैसा क्यों खर्च कर डाला? घर में माँ की एक अच्छी तस्वीर थी इसीलिए...'

अभिमन्यु ने बताया-'उसी अच्छी तस्वीर की एक कॉपी उसके यहाँ भी थी। छोटी थी पर उसी से। और खर्च? उसका पैसा खर्च नहीं हुआ है। दोस्त की दुकान है-ऐसे ही बना दी है।'

सुनेत्रा को याद ही नहीं आया कि कहाँ कब उसके पति का ऐसा कोई दोस्त था।

ख़ैर वह बात छोड़ो-तस्वीर सचमुच अच्छी थी। लग रहा था सुकुमारी सचमुच ही बैठी हैं।

गँवार लड़के के चले जाते ही वहाँ फुसफुसाने लगे लोग- 'नीच, छोटे मन का! असभ्य! साफ समझ में आ रहा है कि हज़रत किस सर्किल में मिक्सअप कर रहे हैं।'

पर ज़्यादा देर तक गुञ्जन चल नहीं पाया। चारों तरफ काम फैला पड़ा था। और इसी वक्त बाँस-रस्सी वगैरह लेकर डेकोरेटर के आदमी आ पहुँचे। छत पर शामियाना खड़ा करना था।

आज पूजा का दिन था। किंग को नहीं लाया गया था। उसे नानी के यहाँ छोड़ आया गया था। वह आयेगा 'नियम भंग' के दिन।

यह व्यवस्था सोमप्रकाश की थी।

उन्होंने लड़कों को अपने पास बुलाकर कहा था-'खर्चे के लिए तुमलोगों को चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। उसकी व्यवस्था मैंने कर रखी है। मेरी इच्छा है कि तुमलोगों की माँ का काम समारोह पूर्वक हो। काफ़ी लोगों को खिलाया जाए।'

सुनकर लड़के अवाक हुए।

यह क्या हुआ?

यह तो जैसे भूत के मुँह से रामनाम सुन रहे हों। या कि राम भूत का नाम ले रहा है।

छोटा बेटा बोल उठा-'पिताजी! 'काम' के समय पर आप समारोह करने कह रहे हैं?...आप तो इस चीज़ से हमेशा घृणा करते थे। आप ही तो कहते थे श्रद्धा माने श्रद्धा निवेदन-ढेर सारे लोगों को बुलाकर उन्हें ठूँस-ठँसकर खिलाना नहीं है।'

'ठीक।' सोमप्रकाश बोले-'मैं हमेशा ही इसी बात पर विश्वास करता आया हूँ-आज भी इस बात को मानता हूँ। पर आज की बात और है-व्यतिक्रम मान सकते हो।'

थोड़ा ठहरे फिर बोले-'तुम लोग तो जानते हो, तुमलोगों की माँ की बड़ी इच्छा थी कि एक दिन के लिए तुमलोग सब इस घर में आओगे-उनके जाने परिचित सारे रिश्तेदार कुटुम्ब इकट्ठा होंगे। वह अपने आखिरी जीवन में...गृहस्थी का एक भरापूरा रूप देख जाना चाहती थीं। तो... क्या है कि वह इच्छा तो पूरी किए बगैर ही चली गईं... इसीलिए...' फिर बोले-'मैं हालाँकि 'आत्मा-वात्मा' पर विश्वास नहीं करता हूँ पर उन्हें तो इन बातों का विश्वास था। इसीलिए सोचता हूँ शायद उनकी आत्मा को शान्ति मिले।'

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