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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

28

सुनेत्रा बड़े ध्यान से अचार बनाने के लिए कच्चे आम छील रही थी कि अचानक छोटी बेटी का उल्लसित कण्ठ स्वर सुनाई दिया-'भइया भइया आए हैं। ओ माँ...'

खट्टा आम का रस आँचल में पोंछते हुए सुनेत्रा दौड़ी आईं-'ओ माँ! अचानक तू? दिद्मा का तलब पाकर क्या?'

कसी बनियान और जीन्स पहने शरीर को बड़ी मुश्किल से झुका उदय ने माँ के पाँव छुए फिर मुँह ऊपर उठाकर बोला-'दिद्मा का तलब? वह क्या मामला है?'  

'अरे, वह एक मजेदार मामला है। अच्छा बैठ। हाथ-मुंह तो धो, पानी-वानी पी, फिर आराम से बताती हूँ।'

'ओ मदर! तुम्हारे इस अभागे बेटे के भाग्य में आराम लिखा है क्या? अभी बारासत भागना पड़ेगा।'

'वहाँ क्या है?'

'है। है कुछ। तुम्हारी मजेदार खबर झटपट सुना दो-संक्षेप में।'

अतएव संक्षेप में बताना पड़ा सुनेत्रा को-'नानी एक दिन के लिए पुराने दिनों में से एक दिन पाना चाहती हैं।'

फिर बच्चों की तरह हँसकर कहने लगीं सुनेत्रा-'तुम लोगों के सिनेमा में जैसे 'फ्लैश बैक' में पिछला बीता कोई दिन उभर आता है, खोया हुआ कोई दिन...'  

'कब है?'

'इसी आने वाले बारह तारीख को।'

'बारह...बारह-ईश...बारह तारीख की मार्निंग फ्लाइट से तो...। माँ, बहुत बुरा लग रहा है।'

सुनेत्रा बोलीं-'तो तेरे अचानक आने की खबर तो तेरी दिद्मा जानती नहीं हैं। उन्होंने तुझे निमन्त्रण भी तो नहीं दिया है फिर तुझे किस बात की लज्जा लग रही है?'

'लज्जा? मैंने कब कहा कि लज्जा लग रही है? मैं तो नुकसान की बात कर रहा हूँ। उस भीषण खुशी के दिन मामदू के यहाँ न पहुँच सकूँगा। एक फोन करता हूँ-'कहकर वह उछल पड़ा।

सुनेत्रा माथा ठोंकते हुए बोलीं-'हाय री किस्मत! वह तो सात दिन से मरा पड़ा है।'

'साल में कितने दिन जिन्दा रहते हैं और कितने दिन मरे रहते हैं ये? ओफ! कलकत्ते का दिनोंदिन जो हाल हो रहा है। खैर हैं कैसे बुड्ढा-बुड्ढी?'

'जरूर ही ठीक होंगे। मैं तो उसके बाद से जाने का समय ही नहीं निकाल पाई-एक दिन बगल वाले घर से फोन करके-तो ये बता तेरे उस फिल्म का क्या हो रहा है?'

उदयभानु (कुमारभानु न बनकर आज भी उदयभानु ही है)। बहनें जब उसे घेर लेती हैं (वैसे मौक़ा ही कहाँ पाती है) और कहती हैं 'भइया! तुम बम्बई जाकर नाम नहीं बदला? हमारी सहेलियाँ बार-बार पूछा करती हैं कि क्यों रे, तेरे दादा का वही पुराना घर का नाम अभी भी चल रहा है? नया कुछ रखा नहीं है?...तुम्हें लेकर उन्हें बहुत कौतूहल है। तुम कैसे चलते हो, कैसे बोलते हो, क्या खाना पसन्द करते हो, क्या क्या फिल्में बन रही हैं? सिर में तेल डालते हो या शैम्पू करते हो? एक दिन मैंने बता दिया था कि पहले तुम सिर में सरसों का तेल लगाते थे-और भइया, सुनकर मेरी शाश्वती नाम की सहेली की तो आँखें ही बाहर आ गईं। और जानते हो भइया, एक दिन मेरी एक सहेली की माँ, अपनी लड़की की अर्जी देने आई थी और उसी दिन, मुझे देर हो रही थी देख पिताजी लेने जा पहुँचे। असल में एक टीचर के मरने की शोक-सभा के कारण देर हो गई थी। तो सहेली की माँ, मेरे पिताजी है सुनकर आसमान से गिरीं। ये तुम्हारे पिताजी हैं? और वह नवागत उदयभानु तुम्हारा भाई? ओह, क्या चेहरा है।'

उदय बोला-'पिताजी के चेहरे में क्या खराबी है? बल्कि मुझसे अच्छे हैं। मैनली चेहरा है।'

'और साज पोशाक? ही ही ही।'

सुनेत्रा बोलीं-'नया नाम-वाम रख ले। उस काम का क्या हुआ?' गर्दन खुजलाते हुए उदयभानु बोला-'वह क्या अभी हो जाएगा माँ? एक मामूली इन्सान का बच्चा दस-दस महीने तक माँ के पेट में अँधेरे में पड़े रहने के बाद रोशनी का मुँह देखता है। और यह तो एक बड़ी चीज है।'

'वाह! तू तो कह रहा था कि छोटा सा एक...सिर्फ पैंतीस मिनट का...'  

'माँ, उसी में पैंतीस घाट का पानी पीना पड़ जाता है, पचासों मील नाक रगड़ते हुए बढ़ना पड़ता है। और अन्त में हो सकता है-'

खाली चाय का कप नीचे उतारकर उदय चुटकी बजाने लगा।

'और अन्त में के मतलब? अचानक चुटकी क्यों बजाने लगा?'

'बताता हूँ-अन्त में शायद सब कुछ गँवाकर नंगा बाबा होकर घर का लड़का घर लौट आना पड़ेगा।'

सुनेत्रा सिहर उठीं। बोलीं-'तूने तो कहा था अट्ठारह आना सक्सेस है। तीन लाख के नौ लाख कर डालेगा...'

उदय ने धिक्कार भरी आवाज में कहा-'यही सोचा था। मूर्ख हूँ न। जिस साले दोस्त को अपने आपसे भी ज्यादा विश्वास किया था, उसी के हाथों में सारा पैसा सौंप दिया था। अब शक हो रहा है कि भीतर ही भीतर वह गड़बड़ कर रहा है।'

सुनेत्रा धप्प से बैठ गईं। बोलीं-'अब तेरा क्या होगा?'

'क्या होगा? प्रोड्यूसर होने का शौक़ भुलाकर फिर से चेहरा पोतना पड़ेगा।'

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