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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

12

लेकिन सुकुमारी क्या सारी मुसीबतों से इतनी जल्दी छुटकारा पा जाती हैं?

और फिर सुकुमारी के बेटे बेटी इतने तो मातृभक्त हैं नहीं कि माँ होकर हाथ-पाँव जोड़ रही हैं, पाँव पकड़ना चाह रही हैं तब भी अपने लिए फाँसी पर चढ़ने का रास्ता प्रशस्त कर लें?

वरना तो कब का छुटकारा पा गई होती। इस तरह के आवेदन तो इन अधीनस्थों के आगे प्राय: किया करती हैं।

इस घर के 'मालिक' की भूमिका में समासीन, सोमप्रकाश सान्याल नामक बुद्धिमान व्यक्ति ने जो दिमाग लगाकर 'हार्ट का रोग' बना लिया है और गृहस्थी के हर झंझट झमेले की आँच से अपने आपको बचाते चल रहे हैं इस 'सच्चाई' को और कोई जाने या न जाने, समझे या न समझे, उनकी सहनायिका सुकुमारी सान्याल खूब समझती हैं, इसमें भला क्या संदेह हैं?'

मौक़ा पाते ही इस तथ्य को वह दीवालों को सुनाती हैं पर दीवाल कहीं सहानुभूति जताने आते हैं। जिनसे सुकुमारी सहानुभूति की उम्मीद करती हैं, वे जब उनका आक्षेप अभियोग सुनते हैं तो सहानुभूति की जगह धिक्कारते हैं। जैसा अभी सुनेत्रा ने धिक्कारा।

वह बोल उठी-'पिताजी क्या जानबूझ कर हार्ट डैमेज करके बैठे हैं? घर-गृहस्थी के झंझटों से बचने के लिए? क्या बेकार की बातें करती हो माँ? हमेशा से देखती आ रही हूँ तुम्हारे मुँह में जो आता है वही बक देती हो।'

और इतना कहते ही, न जाने कैसे और क्यों, उसके मुँह का लगाम भी ढीला पड़ गया। इसीलिए जिस समय सोमप्रकाश अपने उत्तेजित हो उठे इन्द्रियों, शिराओं को ठंडा और शख्त करने के लिए विश्रामरत थे, उसी समय सुकुमारी पर फट पड़ी वही सुनेत्रा।

'किस मुँह से तुम अपनी गलती का समर्थन करने की कोशिश कर रही हो माँ? नाती ने ज़िद्द की थी इसीलिए तुम से 'ना' करते न बना, उपाय नहीं था। अगर सिरफिरा नाती जिद्द करे कि मुझे शराब पीने के लिए पैसे दो, मुझे बुरे मोहल्ले में चरित्रहीनता के लिए जाना है पैसे दो-तो तुम दे दोगी? यह भी तो एक तरह से वही हुआ है माँ? बम्बई में जाकर 'सिनेमा' करेगा तो उसका चरित्र ठीक रहेगा या वह शराबी कबाबी नहीं बनेगा, इस बात की गारंटी दे सकती हो तुम?'

'तू इतने दूर की सोच रही है? तेरे बेटे की उम्र ही क्या है सूनी?'

'कम भी कुछ नहीं है। बिगड़ने के लिए सत्रह-अट्ठारह ही काफी है।...इसके मतलब है कि तुमलोगों ने उसे बिगड़ जाने के लिए जहज़म में जाने के लिए जानबूझ कर बढ़ा दिया।'

माँ का हार्ट तो डैमेज्ड नहीं है, उन्हें चोट पहुँचाने में क्या हर्ज है?

सुकुमारी ने बड़ी कठिनाई से पूछा-'जानबूझ कर?'

'और नहीं तो क्या? आँखों के सामने वाली चीजें दिखाई नहीं दे रही हैं क्या? स्कूलों में पढ़ी लड़कियों दो दिन में वेहेड हो जाती हैं। उन्हें नायिका देखकर सब तालियाँ पीट रहे हैं। बिजनेसमैन लोग उन्हें भुनाकर पेट भरने के लिए अपना हाथ बढ़ा रहे हैं। अब उसके उम्र की दुहाई देकर नखरा क्यों कर रही हो?'

'सूनी रे। सचमुच लड़का बच्चों की तरह ज़िद्द पकड़ बैठा था, 'दिद्मा, तुम तो शादी में ज़रूर अपनी नतबहू को सोने का गहना देतीं-सोच लो वही मुझे दे रही हो। नतबहू तो आयेगी नहीं। नानी की तरफ से जो उपहार देतीं वह हजार दस का तो होता ही-सोच लो वही दे रही हो।' अब इस तरह का ज़िद्द करे कोई तो क्या मना किया जा सकता है?'

रुआँसी होकर बोलीं-'फिर भी रोकने की चेष्टा की थी। तब क्या कहा था, पता है?' तब तो लग रहा है रेल पर चढ़ बैठने की जगह रेल लाइन पर गला रख देना ही मेरे भाग्य में लिखा है।' अब तू ही बता यह सब सुनकर कोई...'

'चुप रहो माँ। उसने कहा और तुमने मान लिया? अब तुम अपने आपको ही ले लो-जब से होश सम्भाला है तुमको कहते सुन रही हूँ 'अरे मेरी इच्छी हो रही है गले में फाँसी का फन्दा डालकर मर जाऊँ।' ऐसा तुम जब तक, अपने काम के वक्त, मतलब पड़ने पर अथवा गैस खत्म होने पर कहती आ रही हो लेकिन यह बताओ-डाला है फाँसी का फन्दा?'

'सूनी रे। मुझ जैसी एक मानमर्यादा बोधहीन औरत के साथ इस युग के गरम खून यंग लड़के की भला तुलना?...परीक्षा का रिज़ल्ट खराब होने पर माँ-बाप डाँटते हैं तो इस युग के लड़के क्या करते हैं देखा नहीं है?'

सूनेत्रा अपने दोनों आखों में आग जलाकर बोली-'अपना दोष छिपाने के लिए अब तो इस तरह की कुयुक्तियों से अपने को तो बचाओगी ही। सुबह जब यह राज़ खुल गया कि बम्बई जाने का टिकट तुम लोगों ने दिया है, दस हजार रुपये-तब सास और जेठ के आगे मेरा सिर कितना झुक गया क्या तुम सोच सकती हो? फिर भी तो गाँव में रहने वाले लोग है। जेठ तो अधपगले से ही हैं।...ससुरजी के मरते ही कन्धों पर आ सवार हुए हैं। फिर भी अवाक होकर सुनाने से बाज न आए- 'बहू माँ! मैंने तो सुना है तुम्हारे पिताजी बड़े समझदार व्यक्ति हैं और तुम्हारी माँ बुद्धिमती है। किस काम का क्या नतीजा होता है, समझते नहीं हैं क्या?' सुनकर मेरी इच्छा सिर पीट लेने की नहीं हुई?'

क्या सुकुमारी से कहते बना-'यही इच्छा तो मेरी भी हो रही है।'

'न, नहीं कह सकीं। केवल मूर्खों की तरह ज़िद्द करते हुए बोलीं-'रुपया उसे यहीं से मिला है, यह बात कैसे मालूम हुई?'

आहा! बेचारी अबोध महिला।

उनकी सदा की मातृमहिमा विगलित नम्र, प्रेम से भरपूर लड़की झंकार उठी-'नाटक न करो माँ! नखरा मुझे ज़हर-सा बुरा लगता है। और उसका हितैषी दोस्त कोई है क्या?...और फिर सू-साइड नोट जैसा एक ऐसा नोट लिख गया है, उसी से ये बात साफ समझ में आती है।'

हाँ-ऐसा ही एक नोट लिख गया था उदयभानु खो जाते समय।

खो ही तो गया है। 'उद्देश्य' भले ही बता गया हो, न बताकर चले जाने के मतलब ही होते हैं 'खो जाना'। रात के वक्त जो लड़का सबके साथ बैठकर खाना खाता है, हँस-हँसकर बातें की हैं-सुबह वही लड़का अपने बिस्तर पर नहीं मिला।

बिस्तर पर नहीं, कहीं भी नहीं।

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