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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

36

इसके बाद विरोधीपक्ष क्या कहता? और जब खर्च की जिम्मेदारी उन पर थी नहीं। और हंगामा?

वही आजकल के ज़माने में कितना होता है?

एक गृहस्थ के सारे हंगामे की जिम्मेदारी वहन करने का वादा कर, सहायता करने के लिए चारों ओर से अनगिनत हाथ बढ़ाए हजारों संस्थाएँ मौजूद हैं। गृहस्थ को अँगुली तक हिलाना नहीं पड़ता है, और विराट-विराट कर्मयज्ञ, या यूँ कहो 'यज्ञ' कर्म समाधान हो जाता है। और ये तो कुछ भी नहीं है। नितान्त ही 'तुच्छ' बात है।

यद्यपि सोमप्रकाश के बेटे-बहू और सगे-सम्बन्धी इसी 'तुच्छ' को 'उच्च' सोचकर आलोचना करने लग गए।

कहने लगे 'अति है' 'अजीब सोच है।'

फिर भी हुआ सब कुछ-सुकुमारी की इच्छा के ही मुताबिक-शायद उससे बहुत ज़्यादा ही।

सोमप्रकाश की लड़की ने भाइयों के आगे 'दरबार' किया। बोली-'देखो, पिताजी 'कंगाली भोजन' की बात कर रहे हैं-'

'ऐं! 'कंगाली भोजन'? इसके मतलब हुए कि मुँह से कुछ भी कहें, भीतर ही भीतर वह हमेशा का बद्धमूल संस्कार। जैसा देखा है अपने दादा-दादी के ज़माने में-ठीक वैसा ही...'

'ठीक बात है। हालाँकि पिताजी ने 'कंगाली भोजन' का उच्चारण नहीं किया था। कहा है-'दरिद्रनारायण की सेवा', पर बात तो वही है। पर ऐसी सेवा का आयोजन करने के लिए कोई कैटरर है क्या?'

अमल, अमल हँसी हँसकर बोला-'क्यों नहीं है? उन्हें चपकटलेट खिलाने की व्यवस्था करो तो-है। पर जनसंख्या पहले से बता पाना मुश्किल है।'

सुनेत्रा बोल उठी-'ओ ओमू-अब वह ज़माना नहीं है रे। अब इन दरिद्रनारायणों को आदरपूर्वक निमन्त्रण देना पड़ता है।'

'अच्छा? ऐसा है क्या?' विद्रुप भरी हँसी से उसका चेहरा अजीब सी दीखा-'यह बात मालूम नहीं थी।'

'मुझे ही कौन सा मालूम था? पड़ोस में एक जने अपने पिता के काम के वक्त कंगाली खिलाने के लिए...ऐसा करने गये तो उन्हें पता चला और तभी मैंने भी सुना।'

विमल बोला-'अरे बाबा, मैंने सुना है 'भारत सेवाश्रम संघ' या इसी तरह की किसी प्रतिष्ठा को रुपया देकर जिम्मेदारी दे दी जाए तो सारा मामला आसान हो जाता है। खुद को किसी तरह की परेशानी झेलनी नहीं पड़ती है। घर के दरवाज़े पर, फुटपॉथ पर दोनों तरफ यह नारकीय दृश्य देखा नहीं जाता है।'

'तो फिर पिताजी को यही कहो।'

'तुम ही कहो न जाकर।'

तो ख़ैर सुनेत्रा ने ही कहा-'उनके राज़ी होने न होने की कौन सी बात है पिताजी? रुपया तो तुम ही दे रहे हो। पर इसमें झमेला कम होगा।'

'ठीक है-'

सोमप्रकाश बोले-'पर तेरी माँ कहा करती थीं कि कंगाली भोजन जहाँ भी देखा है वहाँ सारी सस्ती सब्जी का घोंटा और लप्सी जैसा सस्ता चावल। देखकर बुरा लगता है। मुझे तो लगता है कि अच्छी तरह से इन्हें खिलाना चाहिए, अमीर पैसेवाले रिश्तेदारों को नहीं। उन्होंने क्या जिन्दगी में कभी अच्छा खाना खाया है?'

सुनेत्रा अवाक हुई। उसके पिता ने माँ की हर बात को इतना मूल्य देते थे, मन में सम्भाल कर रखते थे, ऐसी बात तो उसने सोची ही नहीं थी। पिताजी तो माँ को हमेशा 'वात्सल्यपूर्ण' दृष्टि से देखते थे और माँ की कही हर बात को 'बाल भाषितंग' सोचते थे।...किसके मन में क्या है समझ सकना कितना मुश्किल है।

सुनेत्रा का सोचना ठीक है क्या? 'रहता है' या 'सृष्टि' होती है?

ख़ैर फिलहाल उसी में से एक सेवा संस्था को दायित्व देने की व्यवस्था की गई। खाने के आयोजन में कुछ 'पॉलिश' रखने का अनुरोध करते हुए उसी के मुताबिक पैसा दे दिया गया।

कौन जाने सुकुमारी देवी की आत्मा किसी अनन्त शून्य से यह सब देखेगी या नहीं। देखकर शान्ति पाएगी या नहीं-कौन जाने।

          *                  *                   *    

'अब तो घर छोड़ना पड़ेगा।' घोषणा करते हैं सोमप्रकाश।

'अगले महीने की दो तारीख़ है आखिरी दिन। परन्तु निर्लज्जों की तरह से बिल्कुल 'आखिरी दिन' पर पकड़े पड़ा रहूँ-यह मैं नहीं चाहता हूँ। इस महीने के आखिरी दिन ही-और उसी दिन छोड़ दूँगी नन्दी भृंगी दोनों को।'

घोषणा किया था लड़की दामाद, बेटे-बहुओं के सामने।

सभी समझ गये नन्दी भृंगी कौन हैं।

छोटी बहू ने जानना चाहा-'उन्हें जो कुछ रुपया पैसा देने की बात कर रहे थे-वह दे दिया है?'

'वह तो कभी का। उन्हें तो रुपया सम्भालने के लिए समय देना होगा।'

कितना दिया? यह सवाल कोई पूछने का साहस ने जुटा सका।

थोड़ी देर खामोशी बनी रही।

इसके बाद अचानक ही बड़ा बेटा बोल उठा-'अब आप किसके पास रहना सुविधाजनक सोच रहे हैं?'

'किसके पास?'

'वाह! किसी एक के पास तो रहना ही पड़ेगा। आपको जो पसन्द हो। हालाँकि मेरा घर बहुत छोटा है फिर भी एक आदमी लायक जगह बनाना कोई मुश्किल नहीं होगा। पर ओमू के घर में आपको अपना 'बाबूसोना' मिलेगा यही और क्या...'

मन के भीतर जो बातें चल रही थीं, वही अगर उच्चारित हो जाये तो सुनने में आता-'तब तो अच्छा ही हो। लड़के को बिल्कुल ही अनजानी आया के भरोसे छोड़ने की प्रॉब्लम सोल्व हो जाए।' ओमू झट बोल बैठा। और ओमू की बीबी तुरन्त बोल उठी-'आ हा, बहुत खूब। मेरे घर में ही कितनी जगह है? इधर पार्वती काण्ड के बाद ही मैं माँ के पास जाकर रो पड़ी थी और उन्हें अपने पास रहने के लिए राज़ी करवा लिया है।...इसके अलावा ये रहे तो लड़का 'मामदू' के चक्कर में बरबाद हो जायेगा। मेरे लिए एक मुसीबत खड़ी हो जायेगी।'

अचानक दामाद बोल उठे-'इच्छा हो तो, पिताजी हमारे साथ रह सकते हैं। मेरी बेटियाँ थोड़ा बहुत 'कम्पनी' दे देंगी।'

इतनी बातें सामने हो रही थीं।

पर पति की बात सुनते ही सुनेत्रा मन-ही-मन बोल उठी-'हाँ, तुम्हारा मतलब में खूब समझती हूँ। पिताजी को एक बार अपनी मुट्ठी में कर सके तो, घर का आधा खर्च आराम से वसूल कर सकोगे। पिताजी क्या ऐसे रहेंगे? या उनका ऐसे रहना ठीक होगा?'

उसने जल्दी से कहा-'लो सुनो बात-बाबा के अपने दो-दो सोने जैसे चाँद से बेटों के रहते, उनके सुखी संसार के रहते वह दामाद के घर क्यों रहेंगे? लोग ही क्या कहेंगे?'

बड़ी बहू बोल उठी-'लोग भला क्या कहने आयेंगे दीदी? और फिर आप दामाद का घर क्यों कह रही हैं? कहिए लड़की का घर। लड़के लड़की में फर्क ही कितना है? अब तो लोग लड़की के घर में रहने में कोई शर्म महसूस नहीं करते हैं बल्कि आजकल यही स्वाभाविक हो गया है।'

अचानक सोमप्रकाश वहाँ से उठकर चले गये।

बड़ी बहू के वक्तव्य ने सबको चुप करा दिया था। सभी अस्वस्ति महसूस करने लगे। इनके सामने इस तरह की बातें नहीं करनी चाहिए।

लेकिन और कोई उपाय भी तो नहीं।

किसी एक नतीजे पर तो पहुँचाना ही होगा।

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