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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

2

अच्छा, यही क्या वही आदमी है?

या, उसी आदमी का नाम परिचय की केंचुल शरीर पर बैठा है-कोई और आदमी?

कभी-कभी अपने आप पर शक होता है सोमप्रकाश को, क्या मैं सचमुच ही वही एस.पी. सान्याल हूँ?...एक सम्मानित सरकारी दफ्तर का दबंग क्लास वन अफसर?...जिनकी ऑफिस में उपस्थिति से समस्त अधीनस्थों का दिल धड़कने लगता। जब तब यहाँ-वहाँ 'टूर'...हवाई जहाज अथवा सबसे आरामदेह और आभिजात्य ट्रेन में यात्रा। महँगा होटल, साथ में अर्दली।

उसी आदमी का अब बाह्यजगत से सम्पर्क और सान्निध्य सिर्फ इन दो अखबारों के माध्यम से रह गया है। बंगला और अंग्रेजी, दो सर्वाधिक नामी और दामी अखबार लेते है सोमप्रकाश।...हालाँकि बंगला अखबार लेते हैं सुकुमारी के बहाने। सुकुमारी तो उनकी बहुओं की तरह अंग्रेजी अखबार का स्वाद ग्रहण नहीं कर सकेंगी।

बड़ा बेटा हालाँकि अक्सर अपने आप में बड़बड़ाया करता है-'अखबारों के दाम आजकल इतना बढ़ गये हैं...एक तो बन्द किया ही जा सकता है। फालतू में महीना ख़त्म होने पर इतना लम्बा-चौड़ा एक बिल आ जाता है।'

पर उसका सुना-सुनाकर अपने आपसे कहना, कोई खास असर नहीं डालता। क्योंकि इस गृहस्थी के सम्पूर्ण रसद के जुटाने वाले आज भी यही एस.पी. सान्याल नाम का आदमी ही है। अथवा इनका बैंक का अकाउंट है। हर महीने वजनदार चेक आज भी वही काटते हैं।

बंगला अखबार हालाँकि सुकुमारी के लिए है पर इन दिन सोमप्रकाश सुबह उसे भी पढ़ डालते हैं। सुकुमारी उस पर कब्जा जमाने आती हैं दोपहर में।

कभी-कभार छोटा लड़का सुबह के वक्त बाप के कमरे में आता है। तब कहता है-'जब आँखों को इतनी असुविधा तब इनसे इतना स्ट्रेन क्यों करवाते हैं?...इस फालतू बेकार के अखबार में खोद-खोदकर पढ़ने के लिए है ही क्या? वही 'चर्बित चर्बन' एडीटोरियल और मनगढ़न्त सारे किस्से।...और देश भर में कितना करप्शन, कितनी भयानक घटनाएँ घट रही हैं, भयंकर अपराध हो रहे हैं उनका लेखा-जोखा। वह भी फेंटकर, रंग चढ़ाकर ऐसा लिखेंगे कि नर्व तन जाए।'                                                   

यह बात कभी-कभी सोमनाथ न सोचते हों, ऐसा नहीं है। सचमुच आँखों पर इतना ज़ोर डालना शायद ठीक नहीं। ज़रूरी है क्या कि बंगला दैनिक पत्रिका का हर कालम पढ़ा जाए?

पर...या फिर भी...नशा छोड़ना इतना आसान नहीं। उस पर आजकल एक अदभुत धारणा बन गई है जिसे लोगों से कहेंगे तो हास्यकर लगेगा। घरवाले सुनेंगे तो घर के 'मालिक' को 'पागल' करार कर देंगे। लेकिन एक जने से कहा है सोमप्रकाश ने। कभी-कभी कहते भी हैं।

वह आदमी हैं सोमप्रकाश के समय के बाल्यबन्धु नरोत्तम। नरोत्तम सरकार। दीर्घकाल के बाद अचानक ही मानों 'आविष्कार' कर बैठे थे।

तब सोमप्रकाश बाहर निकलते थे, गृहबन्दी नहीं हुए थे। रास्ते में भेंट हो गई थी। और आश्चर्य ये कि दो चार सेकेन्ड 'अपलक' देखने के बाद दोनों ही बोल उठे थे-'अरे नरोत्तम हो न?' 'अरे सोमप्रकाश न? सोमा?'

कुछ ही मिनटों में जानकारी हासिल कर ली गई, नरोत्तम कुछ दिन पहले ही अपना आदिकालीन प्राचीन मोहल्ला और सात शरीकों में बँटे पैत्रिकगृह का मोह त्यागकर इस मोहल्ले में चले आये हैं-बाजार के पास ही एक नया बनकर तैयार हुए 'हाईराइज़' में एक फ्लैट ख़रीद कर।

काफी साल हो गए विपत्निक हुये। रुग्णा पत्नी के वियोग में गृहस्थी की नौका नरोत्तम की ज़्यादा डगमगाई नहीं। पुत्र सन्तान हुए ही नहीं...तीन कन्याएँ मात्र हैं। एषा, दिशा और निशा, वे ही नरोत्तम की चालिका-पालिका-लालनिका हैं-शासिका तो हैं ही। उनमें से एक है विधवा, एक डिवोर्सी और एक विवाहविमुख है या विवाह की इच्छुक कहना मुश्किल है। कम-से-कम नरोत्तम सरकार समझ नहीं पाते हैं। तीनों ही आर्थिक स्वाधीनता की पूर्ण विश्वासी हैं। अपनी-अपनी चेष्टा से अपना-अपना कैरियर बनाया है-बुरा भी कुछ नहीं है। उस पर भी डिवोर्सी मझली लड़की ही गृहस्थी की प्रधाना है।

नरोत्तम कहते-'वही लड़की सबसे ठंडे दिमाग की है और उसकी ही शादी न टिक पाई।'

खैर, वही नरोत्तम इन दिनों अक्सर शाम को चले आते हैं सोमप्रकाश के पास। अभी भी खूब चुस्त हैं।'

बातों ही बातों में वह भी कहते-'धत्! कौन बैठे-बैठे अखबार पढ़ेगा?...आधी खबरें तो खेल की खबरों की कूट चालें...इसके अलावा कुछ फालतू इधर-उधर की खबरें! और टी.वी. में तो दैनिक चार दफा खबरें आती हैं। 'खबर' 'समाचार' 'संवाद' और 'न्यूज' सप्लाई होते हैं। अखबार में अब और नई खबर क्या छपेगी? मैंने तो रिटायर होने के बाद अखबार लेना बन्द कर दिया है। लड़कियाँ अपने-अपने कर्मस्थलों में पढ़ लेती हैं या शायद नहीं पड़ती हैं। इस मूर्खों के बक्स से जो सुन लेती हैं। मैं सुबह बाज़ार जाता हूँ तो किसी दुकान के सामने खड़े-खड़े...न जाने तुझे अखबारों में ऐसा कौन सा रस मिलता है।'

उसी समय मौक़ा पाकर सोमप्रकाश ने अपना हास्यकर वक्तव्य व्यक्त किया था बाल्यबंधु के पास।

कहा था-'मुझे क्या लगता है बताऊँ...ये बंगला दैनिक हैं मध्यवर्ग के बंगालियों के द्रुत चलायमान सामाजिक जीवन का दर्पण।'

'अरे बापरे। बड़ी कानों में खटकने वाली बात लग रही है।'

'खटकने वाली कौन सी बात है? सारे कॉलम अगर ध्यान से पढ़ेगा तो समझेगा कि हमारा समाज किस रास्ते पर जा रहा है।'

नरोत्तम बोले-'वह तो कुछ पकड़ में आता है अपराध की दुनिया की नित्य नई वैज्ञानिक पैटर्न से खतरनाक खतरनाक अपराधों की खबरों से...लेकिन बाक़ी तो सब फालतू का बकवास है।' सोमप्रकाश अपनी बात पर ज़ोर डालते हुए बोले-'मैं तो इन्हीं फालतू के बकवासों से बंगाली समाज के चाल-चलन का आविष्कार कर रहा हूँ। और वह भी विज्ञापनों से ज्यादा...'

'ब्रेन को इतनी तकलीफ न दे सोमा।'

'अरे बाबा, क्या जानबूझ कर तकलीफ देता हूँ? यह तो चाभीदार घड़ी की तरह है। खुद ही टिकटिकाती रहती है। अच्छा तू ही बता...पन्द्रह साल...या थोड़ा मार्जिन रखते हुए कहूँ बीस साल पहले इस तरह के एडवर्टीज़मेन्ट देखे थे? दैनिक, हर रोज, झुण्ड के झुण्ड लोग एफीडेविड देकर नाम उपाधि बदलते हैं। वह भी लड़का-लड़की, बूढ़ा, जवान, ब्राह्मण, शूद्र सभी। ज़रा सोच। हाँ-हाँ, बीस साल पीछे चला जा। कुछ याद आया? देखा है? नहीं न? अगर देखा है तो उसके पीछे कोई गूढ़ कारण होता था और वह भी एक आध लोग। ज़िन्दगी भर लोग सात पुश्तों से चौदह पुश्तों से चली आ रही पदवी लेकर काट देते हैं। लड़कियों के मामले में एक बार...शादी के बाद। और नाम? वह तो वही नामकरण के समय से अन्तिम यात्रा तक ढोते रहना है। 'दिगम्बर' बाबू लोग या 'दिकवसना देवी' याँ बिला झिझक नाम हस्ताक्षर कर रही हैं। शर्म से सिर नहीं झुकाती हैं।'

सुनकर नरोत्तम हो होकर हँसने लगे। सोमप्रकाश भी, मन्द-मन्द कौतुक से। बगल वाले कमरे में बड़ी बहूमाँ सास से कहती-'इन दोस्त के आने से पिताजी पर जैसे खुशी का दौरा पड़ जाता है।...जबकि सच कहूँ तो, देखकर लगेगा बिल्कुल ही अनकल्चर्ड।'

सास अवश्य ही बहू के कथन का समर्थन करतीं। लड़के बहू की हर बात का समर्थन करना और प्रच्छन्न खुशामन्दी भाव, अब यही सुकुमारी का पैटर्न है।

क्यों? कौन जाने। पर ऐसा ही हो गया है। इसीलिए तो तुरन्त बोलीं-'है तो असल में वही। बिजनेसवालो का घराना है। निहायत ही बात बाल्यकालीन मित्रता की है...और क्या? एक ही मोहल्ले में जनम-करम। वही एकमात्र घटिया...मोहल्ले के स्कूल में एक साथ पढ़ना। इतने सालों बाद इसी मोहल्ले आ धमका है और फिर इन दिनों ये भी तो बान्धवविहीन, बेकार हैं।'

उस कमरे का अट्टहास इस कमरे में आ पहुँचता है पर इस कमरे की बातें उस कमरे में नहीं पहुँच पाती हैं। अतएव अनकल्चर्ड नरोत्तम सरकार कल्चर्ड सोमप्रकाश से अनायास ही माईडियर भाव से पूछ बैठते हैं-'तूने इसका कारण क्या सोचा है?'

'कारण तो मुझे लगता है आज का समाज कुछ नया कुछ विचित्र बातें करने के लिए छटपटा रहा है। 'क्या करें, क्या करें' वाला भाव। पर विधाता का दिया चेहरा तो चट-जल्दी बदला नहीं जा सकता है-उसके लिए बड़े-बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। नाम परिचय हाथ की मुट्ठी में। थोड़े से रुपए के बदले दो घंटे में पूरा का पूरा बदला जा सकता है। सुबह थी 'पूँटूरानी मण्डल', शाम को हो गई 'परमेश्वरी मुखर्जी'। सुनते ही फिर नरोत्तम ठहाका मारकर हँसने लगे।

इसी तरह से शाम अच्छी ही कट जाती है सोमप्रकाश की।

*                    *                   *

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