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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

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कह-सुनकर अपनी इच्छा की पूर्ति के निमित्त दो-चार जगह ले गया था, लेकिन अवंती ने जान-सुनकर वहाँ तालमेल न बिठाने की चेष्टा की है। लिहाजा अपनीं इच्छा के अनुरूप ढालने की टूटू को उम्मीद नहीं है। पर हाँ, पत्नी को जबरन घर से बाहर न निकाल पाने के कारण को गौरव के साथ ही जाहिर करता है। अवंती के अलावा वह कौन किसकी पत्नी है जिसे एम. ए. में फर्स्ट क्लास मिला हो और जो इस तरह के एक कठिन विषय पर शोध करने में व्यस्त रहती हो?

लेकिन यह गौरव-बोध अन्दरूनी नहीं है।

जिस पत्नी के लिए इतनी देर से छटपटा रहा था, उसी को पहले जैसा ही स्वस्थ और अपराध के भाव से परे खड़ी होते देख टूटू मित्तिर बरस पड़ा।

''क्या बात?''

अवंती ने कहा, 'इस तरह गँवार की तरह चिल्लाओ नहीं' प्लीज! बात समझाने में देर लगेगी। पहले नहा-धो लूं। दिन-भर गरमी से तपती रही।''

''ठहरो!''

गँवारपन छोड़ टूटू मित्तिर ने दाँत पीस पेशेवर स्वर म कहा,  ''कहां गई थीं, यह बताकर जाना पड़ेगा।''

''बिलकुल नहीं। शॉवर के नीचे खुद को डालने के पहले एक भी शब्द नहीं कह पाऊँगी।''

पत्नी का यह अजीब बेपरवाह हाव-भाव टूटू मित्तिर को अपनी तत्कालीन तनी हुई नसों पर पत्थर बरसने जैसा लगा। एक खौफनाक इच्छा से हाथ कसमसाने लगे। हाँ, चट से एक तमाचा अपनी पत्नी के सुर्ख गाल पर जड़ देने की इच्छा हुई-उस गाल पर जिस पर टूटू मित्तिर तीव्र प्यार का चिह्न अंकित कर देता है, पत्नी का गाली-गलौज सहने के वावजूद। पत्नी कहती है, ''तुम जंगली हो, असभ्य हो, राक्षस हो!''

प्यार पाकर अवंती जिस तरह 'उफ' कहकर गाल सहलाती है, तमाचा खाने से शायद उससे अधिक कुछ नहीं होता। लेकिन तमाचा मारने की इच्छा को निरस्त कर तेज आवाज में बोल उठा,  ''यह सब चालबाजी रहने दो, सीधा-सा उत्तर दो।''

सारे कार्य-व्यापार में टूटू मित्तिर की अभिव्यक्ति की भंगिमा तीव्र हुआ करती है-क्रोध और प्यार दोनों में। अभी उसकी नसों का सिरा फूल गया है।

अवंती पर भी इस प्रकार की जिद क्यों सवार हो गई है? बहरहाल, किसी दूसरी बात का जिक्र करके भी स्नानघर जा सकती थी। उससे कुछ बिगड़ता नहीं। पूरा दिन गरमी की तपिश में नर्सिग- होम के माहौल में बेइन्तहा बेचैनी और दशहत में बिताते रहने के कारण उसे तकलीफ उठानी पड़ी थी, सिर वाकई दर्द कर रहा था। लेकिन वह हालत तो बहुत पहले ही गुजर चुकी है, वसंत ऋतु की

शाम की हवा चली थी, गाड़ी चलाकर बहुत देर तक उस हवा का सेवन कर और पुराने मित्र (अथवा प्रेम-पात्र) के साथ बीते दिनों की तरह ही रेस्तरां में घुसकर चाय पी है, उसे उसके गंतव्य पथ पर पहुंचा भी दिया है। लिहाजा अवंती की फिलहाल ऐसी हालत नहीं होनी चाहिए कि फव्वारे के नीचे गए बगैर एक भी शब्द कहने की उसमें क्षमता न हो।

तो भी बोली, ''सीधा-सा उत्तर तो दे चुकी दूँ। अभी कहने की स्थिति में नहीं हूँ।''

टूटू मित्तिर ने व्यंग्य के लहजे में कहा, ''क्यों, ऐसा कहाँ, क्या करने गई थीं कि स्नान करके पवित्र होने के बाद कहोगी! अब तक कहाँ थीं, यह अभी तुरन्त बताना होगा? तुम्हें कोई अधिकार नहीं है कि इस तरह सबको परेशानी में डाल दो।''

तो भी अवंती तनकर खड़ी हालत में ही बोली, ''बाप रें!. मेरी वजह से किसे कौन-सी असुविधा हो सकती है?''

''तुम्हारे लिए भी हो सकती है, मगर घर की प्रतिष्ठा के कारण तो हो सकती है। जानती हो, विजय पूरे लेक टाउन का गाड़ी से चक्कर लगाकर देख आया है कि कहीं कोई एक्सिडेंट हुआ या नहीं। इसके अलावा मैंने हर थाने में फोन किया था...''

अवंती अपने पति के क्रद्ध, असहिष्णु, आहत, चेहरे की ओर निहारकर भयभीत क्यों नहीं हो रही है, कम-से-कम शर्मिन्दा तो होना ही चाहिए था। वह अब भी अडिग स्वर में बोली, ''बाप रे! इसी बीच इतने सारे कांड हो चुके हैं! तुम आज इतनी जल्दी होश-हवास के साथ घर लौट आओगे, यह बात किसे मालूम थी?''

यह एक और ढेला। इसका मतलब स्वेच्छा से ही फेंका है अवंती ने। शायद थोड़ी ज्यादती ही की है। थोड़ी-सी शराब पीने की आदत होने के बावजूद टूटू कभी होश-हवास नहीं खोता। वापस आने में अगर देर हो भी जाती है तो भी कभी रात ग्यारह-बारह बजे नहीं लौटता है। फिर भी अवंती ने ऐसी बात कही? इसका मतलब जान-सुनकर चिढ़ाने की खातिर ही।

टूटू की नसों की नाड़ी और अधिक फूल उठी।

टूटू बोल उठा, ''औरतों को आजादी देने का अंजाम यही, होता है।''

अवंती जरा चौंक उठी।

उसके बाद उपेक्षा भरे स्वर में बोली, ''तुम जरा गलती कर बैठे। आजादी नामक चीज़ कोई किसी के हाथ में उठाकर धर नहीं देता, उसे लेना पड़ता है।''

''तुम्हें आजादी नहीं दी गई है?''

टूटू मित्तिर सोफे से उठकर, खड़ा हो जाता है और कहता है, ''औरत जात ही इस तरह की कृतघ्न होती है। राजकुमारी सास के शिकंजे में फँसी हुई थीं, वहाँ से चातुरी से बाहर लाकर....उफ! आश्चर्य की बात है!''

अवंती ने ठंडे स्वर में कहा, ''ले आए हो अपने स्वार्थ से। वहाँ मैं वैसी कोई बुरी नहीं थी। लेकिन अब बरदाश्त नहीं हो रहा है।'' यह कहकर अवंती स्नानघर चली गई।

जबकि जाने के पहले अवंती अनायास कह सकती थी, ''पूरा दिन यम और आदमी की लड़ाई के बीच बिताना पड़ा है और बेहद तकलीफ उठानी पड़ी है।''

इतना कहने से ही परिस्थिति बदल जाती।

शायद प्रथम दर्शन में ही टूटू के तमतमाए हाव-भाव को देखकर अवंती का अन्तर्मन कठोर हो उठा था।

हालांकि अवंती महसूस कर रही थी कि उसे और कष्ट पहुँचाना ठीक नहीं है। बताकर ही जाऊं।

पर चट से क्या कहकर जाएगी?

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