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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

23

चले आने के बाद अवंती ने दो दिन तक टूटू से बोलना-चालना बन्द कर दिया था। उसके बाद ससुर से निवेद किया था।

और उसके बाद रंगीन नशे में चूर इस बूढ़े के पास आकर खड़ी हुई है अवंती नामक चंचलमना यह नारी। लेकिन यहाँ पनाह नहीं मिली।

औरतों के जीवन का यह एक अजीब ही अभिशाप डै। किसी-न-किसी के आश्रय में उसे रहना ही होगा। मर्दों की तरह 'परवाह नहीं' कहकर जहाँ भी मर्जी हो, जा नहीं सकती हैं।

''अच्छा, चलती हूँ,'' कहकर अवंती खड़ी हो जाती है।

अमियवल्लभ व्याकुलता के साथ कहता है, ''अभी कहाँ जाओगी?''

''जहाँ भी ये आखें ले जाएँ।''

''अभिय वल्लभ ने और अधिक व्याकुलता के साथ कहा, ''मैं इसके पहले की बातों के लिए अपना दोष स्वीकार करता हूँ, तुम यहीं-रही। नशे का वायकाट कर दूंगा।''

अवंती हँस दी।

बोली, ''आप ऐसा कर सकिएगा?'

''कोशिश करूँगा।''

''कितने दिन? हमेशा के लिए? ऐसा होना संभव 'नहीं है।''

बाहर निकल आयी।

गाड़ी पर बैठ गई।

मन बड़ा ही बेचैन है। यह बूढ़ा वाकई उसे प्यार करता है। अवंती भी। यह गाड़ी उन्होंने ही दी थी। एक और उसाँस ली उसने।

काश, अवंती के पास यह गाड़ी और पेट्रोल का अशेष भंडार रहता तो उसके लिए कुछ भी चाहने को नहीं रह जाता। अवंती चलती रहती, चलती रहती। कलकत्ता के हर रास्ते में, हर सड़क पर। लेकिन सच्चाई क्या यही है?

चाह की पूर्ति तो बाकी ही है। अवंती को वहाँ जाना होगा। गाड़ी में अब भी पेट्रोल है, इसलिए गंतव्य स्थल पर ही पहुँचना ठीक रहेगा। वह स्थल बीते दिनों का जाना-पहचाना है।

इरा ने दरवाजा खोला।

बोली, ''समझ गई। आप अवंती देवी हैं न?''

''आप कैसे समझीं? इसके पहले तो देखा नहीं था।''

''न देखने पर भी पहचाना जा सकता है। आपने 'श्यामल बाबू की पत्नी के लिए इतना कुछ किया है...''

''उफ़! यह सब आपको किसने बताया? अरण्य है?''

''देवरजी? अरे, वह तो परसों रात ट्रेन से हैदराबाद चला गया है।''  

''हैदराबाद!''

''हाँ! अचानक एक अच्छी-सी नौकरी मिल गयी। शायद जल्दबाजी की वजह से किसी को सूचित नहीं कर सका। आप थोड़ी देर बैठिए न।''

'नहीं, जरा काम है।''

एक भीषण क्रोध और अपमान से अवंती को आपे से बाहर होने की इच्छा हो रही है। अभी सौजन्य के दायरे में नहीं रहा जा सकता है।

उस विश्वासघाती, का पुरुष, भीरु व्यक्ति को अवंती अभी अपने करीब पाती तो उस पर गोली चला देती?

बाधा यतीन की गली से बाहर निकल आयी अवंती।

एक आदमी ने अवंती को निर्लजता से अपमानित किया है। लेकिन तो भी अवंती मुक्ति के स्वाद का अनुभव क्यों कर रही है? इसलिए कि अब वह अपनें तईं जो भी मर्जी हो, कर सकती है? एक ओर किसी आदमी को बिना देखे भी पहचाना जा सकता है, वहीं दूसरी ओर देखने से भी पहचानना मुश्किल है।

अवंती क्या सोच सकी थी कि वह आदमी एक ही इतिहास की पुनरावृत्ति करेगा?

परसों रात चला गया है अरण्य।

इतना जरूर है कि उस दिन एक अच्छी-सी नौकरी पाने की बात बताई थी। उस दिन या उसके एक दिन पहले? शायद एक दिन पहले। अवंती ने कहा था, ''अब बरदाश्त नहीं हो रहा है, अरण्य। किसी समय जो गलती हो गई थी, अब सुधार लिया जाए।''

हां, किसी समय इसी तरह की घटना घटित हुई थी।

अरण्य ने कहा था, ''तुम्हारे पिता के पास क्या करने जाऊँ? बगैर गए काम नहीं चलेगा? पत्र लिखने से काम नहीं होगा?''

''बेवकूफ की तरह बातें मत करो। याद रखो, वे अपनी एकमात्र लड़की को...''

''अच्छा, एक दिन की मोहलत एनर्जी बटोरने के वास्ते दो।''

जिस तरह परसों के एक दिन पहल अपने सोच का फलाफल अवंती को जताकर नहीं गया, उसी तरह बहुत दिन पहले भी नहीं गया था। भागकर जान बचाना ही उसका तौर-तरीका है।

हालांकि उसकी दमदमाते छुरे जैसी आँखें, उसकी बेपरवाही, ऊटपटांग बातें, सब कुछ को नकारने की भंगिमा-आसपास को बड़ी तीव्र गति से अपनी ओर आकर्षित करती हैं।

अवंती ने गौर किया था, भोंदू किस्म की श्यामल की बेवकूफ पत्नी भी तीव्रता से आकर्षित हो रही थी। मुग्ध हो रही थी।

इस अनियम को क्योंकर बरदाश्त करेगी अवंती?

यही कारण है कि अवंती ने तेजी से आगे बढ़ना शुरू कर दिया था। अवंती के मन के सामने उसका बाकी सारा कुछ धुंधला होता जा था।

अवंती को सिर्फ यही चिन्ता थी कि लतिका की मुग्ध दृष्टि से उसे परे ले जाना होगा।

अवंती को एक समय के उस इतिहास का स्मरण नहीं आया था। सच्चाई के रूबरू होने का साहस नहीं है उसमें। इसके मायने वह भीरु कापुरुष है।

गाड़ी चलाते-चलाते अवंती को उस क्षुब्ध उदास वृद्ध के चेहरे की याद आयी। उस चेहरे को अवंती हमेशा हँसी से दमकता हुआ और खुशियों से लबालब भरा देखती आयी है।

उस क्षुब्ध मुखड़े से निकलती बातें अवंती के कानों में गूंजने लगीं। ''प्रेम, प्रणय, प्यार अत्यन्त महान सुन्दर वस्तु है, लेकिन उस पर टिके रहने के लिए एक ठोस आधार की जरूरत है। वह आधार है विश्वास, आस्था, सुरक्षा का आश्वास ने।''

पर अवंती अब वहां लौट जाने की कोई राह छोड़कर नहीं आयी है।

वह आदमी भीरु कापुरुष है।

मगर अवंती भीरु नहीं है।

अवंती इस गाड़ी की आखिरी बूंद पेट्रोल तक को खत्म कर, गाड़ी को उद्दाम गति से चलाते हुए एक तेज गति से आती लॉरी से टकरा सकती है। बस, सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

उस परिणति के बारे में सोचने के दौरान अवंती को अपनी स्थिति का स्मरण नहीं आया और न ही इस गहरे लाल रंग की गाड़ी की बॉडी की संभावित स्थिति का पूर्वाभास।

टूट-भूटकर, मुड़-तुड़कर...

एकाएक अवंती की आँखों में आँसू की बूंदें दमक उठी-अपने आपके शोक के कारण नहीं, बल्कि परम प्रिय इस गाड़ी के कारण। मन हाहाकार कर उठा-यह गाड़ी उन्होंने भेंट की है। उस आदमी ने अवंती से कहा था, ''मेरा कलेजा चाक कर दिया तुमने।''

इसके बाद वे देखेंगे, उनके प्रेम-भरे उपहार को अवंती तोड़कर, चूरचार करके...

एक दौड़ती लॉरी से टकराने से उसकी हालत कैसी होगी, इसके बारे में सोचते ही आँसू आँखों के कोने तक को लबालब भर देने को आतुर हो उठे। अवंती ने अपनी सोच को दूसरी दिशा में मोड़ना चाहा। लेकिन वह सोच क्या है?

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