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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

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इरा का यह कथन बेशक कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अरण्य को भी लगता है, भैया रात-दिन सुख के सागर में तैर रहा है। देख-देखकर आश्चर्य भी होता है कि किस सुख से भैया का सुखी जैसा चेहरा है।... 'उसके बाद करुणा भी जगती है। सोचता है, यह अबोध व्यक्ति का सुख है। जो बेवकूफ होते हैं वे ही सुखी हो पाते हैं। दो बेवकूफ मिलकर एक हो गए हैं न! महाभारत की उस कहानी की तरह कि तंडुलोदक पीकर खुश हो जाता है कि दूध पिया है।...लेकिन यह कैसे कहूँ-श्यामल को भी तो देखा हुऐ, पत्नी के लिए वह जी सकता है और मर भी सकता है। पत्नी भी तो पति को पाकर स्वयं को धन्य समझती है। फिर! हानि कहाँ है?

यह सोच उसे हँसने को विवश कर देता है।

दुनिया में शायद ऐसे ही लोगों की तादाद ज्यादा है-करुणा के इन पात्रों की। फिर भी ये करुणा के पात्र ही हैं।

करुणा के पात्र! तो भी उनके छोटे-से घर-संसार के प्रति अरण्य नामक यह भगोड़ा क्यों इतना कशिश महसूस करता है? उन लोगों के बेवकूफी भरे प्रेम, उन लोगों के एक उल्लेखन करने योग्य शोक के लिए शोक मानने और एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति प्रकट करने का क्रियाकलाप अरण्य को मानो अपनी ओर खींचता रहता है। यही वजह है कि वह जब तब उन लोगों के पास पहुँच जाता है। लेकिन अवंती? वह भी यदा-कदा श्यामल और लतिका के समीप जाकर खड़ा हो जाती है। वह भी क्या प्रेम से पूर्ण उस छोटे-से घर-संसार को देखने के खयाल से ही?

नहीं-नहीं, अवंती उन लोगों के पास कर्तव्य निबाहने के खयाल से जाती है।

मिसेज़ घोष से मनमुटाव होने के तीन-चार दिन बाद ही लतिका चली आयी है। अवंती को देखती है तो 'दीदी-दीदी' कहकर उसे कसकर पकड़ लेती है, ''आपके आने से कलेजे में नई ताकत पैदा हो जाती है, दीदी! आप जब तक रहती हैं, कितने सुकून का अहसास होता है!''

श्यामल भी कहता है, ''सचमुच अवंती, इतने दिनों के बाद तुमसे मुलाकात हो जाएगी और इस तरह तुम आत्मीया जैसी हो जाओगी, ऐसा कभी नहीं सोचा था।''

श्यामल की माँ अवंती को पाकर स्वयं को धन्य महसूस करती है। बड़े आदमी की पत्नी खुद गाड़ी चलाकर आती है पर कितनी निरहंकार है! कितना सहज हाव-भाव है! ऐसी औरत को देखकर स्नेह से विगलित क्यों नहीं होगी!

लेकिन अरण्य? अरण्य एक रहस्य है।

अरण्य ठीक उसके विपरीत है।

वजह-बेवजह, या शायद 'कारण' खड़ा कर अरण्य अवंती पर व्यंग्य कसता है, विद्रूप करता है, उसे तीखी बातें सुनाता है और श्यामल के प्रति उसकी जो सहानुभूति या प्रेम है, उसे बड़े आदमी की पत्नी के महिमा-विकास की एक सूक्ष्म कला के नाम से अभिहित करता है।

मानो, अवंती पर चोट करने में सक्षम हो पाना ही उसके लिए अर्थपूर्ण है।

हालाँकि एक ही जगह बे दोनों बार-बार आते-जाते रहते हैं। एकाएक भेंट-मुलाकात भी हो जाती है।

यह क्या अरण्य के अवचेतन में है? या वह जान-सुनकर ऐसा करता है?

कौन जाने, जान-सुनकर करता है या नहीं। शायद अरण्य के श्यामल के घर में बार-बार आने को (जो व्यक्ति मित्रों के लिए दुर्लभ वस्तु है) श्यामल यदि और ही कुछ समझे तो उसके संदेह पर कुठारा-घात करना ही क्या उसका उद्देश्य है?

या ऐसा उसके अवचेतन में है?

अरण्य की प्राप्य वस्तु एक 'बड़े आदमी' पर दखल जमाए बैठी है, इसी की जलन है क्या?

या फिर प्रतिपक्ष होने पर बातें करने का बहुत मौका मिलता है, इसलिए?

कारण चाहे जो भी हो, लेकिन लगता है अवंती पर निगाह जाते ही अरण्य के अन्दर आग की एक लपट दहक उठती है।

और जुबान धारदार हो जाती है।

अवंती यदि कहती है, ''तुम इस वक्त? दफ्तर नहीं है?'' तो अरण्य कहता है, ''दफ्तर' नहीं है, यह बात श्यामल जानता है। चालाकी करके न जानने से काम चल सकता था।''

अवंती का चेहरा लाल हो जाता है। कहती है, ''इतनी घटिया बातों की तालीम कहाँ ली?''

अरण्य का तत्काल उत्तर ''घटिया लोग ही घटिया बातें जानते हैं। तालीम लेने की जरूरत नहीं पड़ती।''

श्यामल तत्क्षण कहता है, ''चुप रहो। इसको मिलाकर कितनी बार नौकरी की और कितनी बार छोड़ी, इसका हिसाब किया है?''

''जीवन में और कोई विलासिता करने का सुयोग नहीं है। बस, वही एक विलासिता है। बॉस के चेहरे पर उपेक्षा के साथ रेजिगनेशन लेटर फेंककर चले आने से बढ़कर आमोद-प्रमोद क्या हो सकता है? अवंती कुछ न कहती हो, ऐसी बात नहीं। कहती है, ''जिन लोगों को असाधारण बनने की इच्छा रहती है मगर उनके अन्दर वह सामर्थ्य नहीं होती, वे ही 'अस्वाभाविक' होकर यातना की पड़ताल करते हैं।''

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