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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

13

शरत मित्तिर हालाँकि पुत्रवधू को निर्बंध आदेश दिए हुए हैं कि 'मेरे लड़के की परवाह नहीं करनी होगी, कैफियत नहीं देनी होगी, तो भी अवंती यदि अपनी इच्छानुसार चार पुस्तकें खरीदकर ले आती है तो टूटू अप्रसन्नता मिश्रित क्षुब्ध हंसी हँसते हुए कहता है,  ''इतनी फिजूलखर्ची का कौन-सा अर्थ है? हाथ में रुपया आ जाए तो खर्च करना क्या जरूरी है? बैंक में एकाउंट खोल दे सकती हो। ऐसे में थोड़ा-बहुत जमा हो सकता है।"

अवंती ने हँसकर कहा था, ''यह काम तो तुम्हीं लोग कर रहे हो।"

''इससे क्या होता है? सभी को अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए।"

तो भी अवंती ने इस 'सुगंध' को स्वीकार करने में उत्साह नहीं दिखाया है। कहा है, ''तुम लोग अपना जमा किया हुआ रुपया-पैसा किसी मिशन को दान नहीं कर दोगे। इसलिए अलग से अपने भविष्य के बारे में सोचने क्यों जाऊं?''

जीवन जब स्थिर लय और गति के साथ चलता है, आदमी इसी प्रकार का 'निश्चिन्त, विश्वास लिये निश्चिन्त रहता है।

अवंती का भविष्य टूटू से अलग हो सकता है, इस तरह का सवाल अवंती के सामने खड़ा नहीं हुआ है।

लेकिन सहसा यदि यह सवाल अँधेरे के परदे की ओट से झाँकने लगे तो उस समय यही बात सोचकर अवंती को क्षुब्ध हँसी हँसना होगा। वह रुपया तो टूटू मित्तिर के पिता का ही रुपया-पैसा है।

अरण्य सवेरे ही निकल पड़ा था। आने पर देखा, हालत ऐसी है जिसके बारे में सोचा नहीं गया था। मिसेज घोष के निश्चित विश्वास की दीवार में दरार पड़कर सैलाब का पानी अन्दर घुस आया है।

बच्चे ने विश्वास को चकनाचूर कर दिया है।

यह खबर अरण्य को बाहर ही नर्स से मिल चुकी थी और मन बहुत ही उदास हो गया था, पर यह एक अविश्वसनीय आश्चर्यं की बात है कि कमरे के अन्दर आते ही अरण्य के मन में एकाएक एक प्रसन्नता की रोशनी कौंध गई।

गलत है, हाँ, बिलकुल गलत।

अरण्य ने सोचा, मुझे यह अच्छा लगना बहुत ही बुरा है।

लेकिन मन पर क्या जोर चल सकता है?

और आँखों की गतिविधि पर? अगर जोर चल सकता तो अरण्य की आँखें शुरू में बिस्तर पर पड़ी नीम-बेहोश लतिका पर पड़ने के बजाय बगल में बैठी अवंती पर नहीं पड़ जातीं।

लेकिन अवंती पर ही गईं। लिहाजा आँखों की भाषा के माध्यम से ही पूछना पड़ा, "तुम कब आयीं?''

अवंती ने सिर हिलाने की भंगिमा से जता दिया, यही थोड़ी देर पहले।

पर लतिका के बिस्तर के एक छोर पर जो आदमी दोनों हाथ से मुंह ढंके तिपाई पर बैठा था, अरण्य के आने की आहट पाते ही 'खामोश रहने के नियम' का पालन न कर एकाएक रोते हुए चिल्ला उठा, "खबर मालूम हुई? मेरा कहना है, जरूर ही कोई गलती हुई थी। जितने भी डॉक्टर हैं सब-के-सब अनाड़ी हैं। एक-एक नर्सिंग-होम खोलकर बैठ गए हैं।''

थोड़ी देर पहले मिसेज घोष ने खुद ही अवंती से कहा था, ''बच्चा मुझे बेवकूफ बनाकर चला गया, मिसेज मित्तिर। रात-भर बिलकुल स्वस्थ था, अचानक रात के आखिरी पहर के दौरान...क्या जो गया! खुद को मैं क्षमा नहीं करं पा रही हूँ।''

लेकिन अब इस अपमानजनक बात के बाद आत्मग्लानि का टिके रहना असम्भव है, इसीलिए मिसेस घोष के तीक्ष्ण कंठ से आवाज निकली, ''गलती आपने ही की थी, श्यामल बाबू। आपको अपनी पत्नी को 'वेलव्यू' में भर्ती कराना चाहिए था।''

श्यामल और कुछ बोलने जा रहा था मगर अवंती ने शांत स्वर में कहा, ''इतना अपसेट मत होओ, श्यामल! याद रखो कि वह समय पूरा होने के पहले ही धरती के प्रकाश में चला आया था। एडजस्ट नहीं कर सका। अब लतिका के बारे में सोचो।''

लतिका फफककर रो दी।

मगर सिर्फ रोने-धोने से ही तो काम नहीं चलेगा, दुनिया बड़ी निष्ठुर है। बहुत सारा कर्तव्य और प्रबन्ध करना है। काम की बात कहे बिना कुछ हो ही नहीं सकता।

सबको कमरे से बाहर निकल जाना पड़ा।

लतिका के सामने सारी बातों की चर्चा नहीं की जा सकती है।

उसके बाद-

बहुत देर बाद जब अवंती जाने को तत्पर हुई, अरण्य ने कहा, ''अवंती, तुम्हारी गाड़ी कहाँ है?''

अवंती न मजाक भरे लहजे में कहा, ''तेल खत्म हो गया है!''

अरण्य ने उसकी ओर देखा।

तेल खत्म होना वैसा कोई अहम् मुद्दा नहीं है।

बोला, ''लगता है कल रात पति से जमकर नोंक-झोंक हुई है।

''नोंक-झोंक? मुझे क्या तुम बहुत झगड़ालू औरत समझते हो?'' अवंती ने ललाट पर आए बालों को सरकाया। आज भी अरण्य का ध्यान इस बात पर गया कि अवंती की अँगुलियाँ रंगी हुई नहीं हैं।

अरण्य ने कहा, ''तुम्हे माप सकूं, ऐसी कैपिसिटी नहीं है।''

''धोखेवाज लोग इसी तरह चालाकी कर जिम्मेदारी से कतराते हैं।''

अरण्य ने हँसकर कहा, ''अवंती, कुल तुम्हारे सिर का दर्द ठीक हो गया था?''

''सिर का दर्द! ओहो! पता नर्ही। शायद नहीं। शायद रह ही गया है।

खैर, अपना समाचार बताओ! उतनी रात में घर लौटने पर झिड़कियों सुननी पड़ी?''

''झिड़कियाँ? कौन झिड़कियाँ सुनाएगा?''

''क्यों, तुम्हारी माँ?''

वह सव स्टेज वहुत दिन पहले गुजर चुका है।

''माँ ने अब प्रयास करना छोड़ दिया है। पर हाँ, कल एक अप्रिय घटना घट गई। माँ घर में थी ही नहीं।

''अप्रिय घटना! अप्रिय का मतलब?

''अप्रिय ही कहना चाहिए। जाकर देखा...

अरण्य ने मुख्तसर में कल की घटनाओं का ब्यौरा दिया।

उसके बाद वोला, ''खुशकिस्मत थी कि मर गई।

अवंती की आँखें सिकुड़ गईं।

''मरना खुशकिस्मती है?'

''उस हालत में जिन्दा रहने से क्या होता, सोचकर देखो। लगभग पूरा शरीर जल गया था।''

अवंती अब सिहर उठी। बोली, ''ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।''

अब वे लोग नर्सिंग-होम के प्रांगण से सड़क पर आ गए हैं। अरण्य बोला, ''कैसे जाओगी?''

''जाने के लिए ही आयी हूँ। साइकिल रिक्शा से!

''कितनी परेशानी है! अभागे गरीबों की गाड़ी से!''

अवंती ने उसकी आँखों से आँख मिलाते हुए कहा, ''अगर कहूँ, रातों-रात बेहद गरीब हो गई 'हूँ!''

''यकीन नही करूंगा।''

''इस संसार में अविश्वसनीय कुछ भी नहीं है। मान लो, जिस पैक में मेरा सारा कुछ जमा है, मैं निश्चिन्त हूँ, और वह बैक सहसा फेल कर जाए तो क्या होगा?''

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