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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

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बात का सिलसिला समाप्त कर स्टीयरिंग थाम ली। थोड़ी देर तक चलाया, उसके बाद बोला, ''दुहाई है तुम्हारी, जहां भी जितने प्रेमी हैं तुम्हारे, सभी को घर बुलाकर अड्डेबाजी करो। इस तरह गुस्सा जाहिर करने सड़कों की धूल छानते हुए मरने की कोशिश मत करो।

अवंती क्या अब तक नींद के आगोश में थी?

इसीलिए चारों तरफ निहारती हुई आश्चर्य में खोती जा रही है? आश्चर्य भरे स्वर में ही बोली, ''मैं कहाँ जा रही थी?''

''दया कर इतनी देर के बाद घर ही आ रही थी शायद। लेकिन अन्तत: पहुँच पातीं या नहीं, मालुम नहीं। मैं इस तरह चलाता तो कहतीं, यह अभागा आदमी ड्रिंक करके ही मौत के मुंह में समाया है।''

 अवंती ने अहिस्ता से कहा, ''आखिर पहुँच तो गई! किससे कहा? दूसरे को या अपने आपको?''

उसके बाद अवाक् होकर सोचने लगी, अपने घर के रास्ते पर वह कब आ गई? किसी अनजानी-अनपहचानी जगह जाकर वह एक दौड़ती हुई लॉरी के ग्रास में समाने के खयाल से टेढ़ी-तिरछी घुमाव दार सड़क से ही जा रही थी।

उसके बाद सोचा, उस दोपहर को यदि मैं एक मिनट के लिए कमरे के बाहर आकर खड़ी हुई न होती तो फिर क्या जान पाती कि रेत के तले शीतल जल का स्रोत प्रवाहित होता है? रेत के हटते ही उस पर निगाह पड़ती है।

 

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