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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

14

अरण्य मन-ही-मन हंसा। सोचा, इसके बाद भी विश्वास करूं कि पति सें तुम्हारी नोंक-झोंक नहीं हुई थी! होना आश्चर्यजनक भी नहीं है। तुम्हारा कल का आचरण और घर लौटने का वक्त किसी भी पति के लिए प्रसन्नता की बात नहीं हो सकती।...यह सब मन-ही-मन सोचा। जवान से कहा, ''तो भी कहूँगा कि रातों-रात 'गरीब' हो जाना सिनेमा-टाइप की कहानी है। वहां अवश्य ही देखने को मिलता है कि कारखाने में अचानक आग लगने के कारण बहुत बड़ा उद्योगपति घर, गाड़ी और सम्पदा से वंचित होकर फटेहाल हो गया है। और दूसरे दिन ही वह आदमी फटी बनियान पहने सड़क पर नल से पानी पी रहा है।"

अरण्य हंसने लगा।

और उसके बाद अकस्मात् ही बोल पड़ा, ''अच्छा अवंती, तुम औरतों के सिर पैर साधारण घटना के कारण या शायद अकारण ही जुनून क्यों सवार हो जाता है?''

''जुनून सवार हो जाता है?''

''इसके सिवा और क्या? औरतें भी तो मनुष्य हैं! नहीं हैं क्या? फिर? अकसर किसी कारणवश या बेवजह ही चट से खुद को मारने में दुविधा महसूस नहीं करतीं। गले में फंदा लगाकर सीलिंग से झूल जाती हैं या किरोसिन तेल छिड़क दियासलाई जलाकर आग लगा लेती हैं और जहर का इंतजाम हो तो फिर कहना ही क्या, थोड़ा-सा खा लेती हैं!''

अरण्य के बोलने का तौर-तरीका देख अवंती हँसे बगैर न रह सकी।

अरण्य ने कहा, ''इसमें हँसने की कोई बात नहीं है। जो सच है, वही कह रहा हूँ। यह क्या खून नहीं है?''

अवंती ने कहा, ''हो सकता है खून ही हो। लेकिन खून बेवजह क्यों करती हैं, इस तरह की धारणा क्योंकर पैदा हुई?''

''देख-देखकर, सुन-सुनकर! अरे बाबा, जिन्दगी में अगर परत-दर-परत अंधेरा छा गया है तो जिन्दा रहने का कोई उपाय नहीं है? मरना क्या जरूरी है?''

अवंती ने उसकी आँखों की तरफ आँखें उठाकर देखा, ''अगर जीवन के प्रति वितृष्णा हो गई हो तो?''

अरण्य ने कहा, 'तृष्णा को वापस लाने की कोशिश करनी होगी। खुद को मार डालना कोई अहमियत नहीं रखता। इसे मुक्तिहीन ही कहा जाएगा। हां, युक्तिहीन बेवकूफी।''

''मर्द क्या इस तरह की युक्तिहीन बेवकूफी नहीं करते?''

''उन्हें मैं जनाना मर्द कहता हूँ। बरदाश्त नहीं कर पाता!'' अवंती ने कहा, ''फिर तो मुश्किल की बात है। मुझे ही तो बीच-बीच में इस तरह की बेवकूफी भरी इच्छा होती है। लेकिन प्राण निछावर करने को बेवकूफी क्यों कहा जाता है?'

''अवंती!''

अरण्य एकाएक अवंती का कंधा कसकर पकड़ लेता है। अरण्य को पिछली रात का भय दबोच लेता है! गंभीर स्वर में कहता है, ''अवंती, सच-सच बताओ, यह तुम्हारा मजाक है या नहीं।''

अवंती अपना कंधा हटा लेती है। गम्भीर हाव-भाव के साथ कहती है, '''उफ़! ऐसा हाव-भाव दिखा रहे हो जैसे तुम्हारा सारा कुछ रसातल में चला जाएगा।''

''क्या जाएगा या नहीं जायेगा, यह मैं नहीं जानता। लेकिन औरतों पर यकीन नहीं किया जा सकता। वचन दो कि इस तरह की बेवकूफ इच्छा को मन में पनपने नहीं दोगी। हाँ, कभी नहीं।''  

''वाह, एक ही बात में वचन दिया जा सकता है'? कब कौन-सा मूड आ जाए।''

वे लोग एक पेड़ की छांह में खड़े हो एक रिक्शा का इन्तजार कर रहे हैं। अरण्य ने सड़क की तरफ काफी दूर तफ निगाह दौड़ाई। न, कल की तरह ही हालत है और धूप भी काफी तेज हो गई है। लेकिन कल भी तो अरण्य की निगाह इसी समय अवंती पर पड़ी थी। कितना रानी-महारानी जैसा हाव-भाव था!

अरण्य बोल उठा, ''अवंती कल तुम्हारा पति से अवश्य ही जमकर झगड़ा हुआ है।''

अरण्य की आवाज में उत्तेजना है।

लेकिन अवंती ने एकाएक उसकी उत्तेजना पर पानी छिड़ककर मुक्त कंठ से हँसते हुए कहा, ''अरण्य; आश्चर्य है! तुम्हें कैसे पता चला, बताओ तो सही!''

अरण्य ने कहा, ''हुआ है या नहीं?''

''हाँ, बहुत ज्यादा। मुझे भी कल तुम्हरे उस ममेरे भाई की पत्नी की तरह किरोसिन छिड़कने की इच्छा हुई थी। पर...सनातन वह सब कहाँ रखता है?'' अपना चेहरा रुँआसा और करुण बनाकर कहती है अवंती।

अरण्य जोर से हँस देता है।

कहता है, ''उफ़ ऐसा डरा दिया था कि क्या कहूँ! अब भी तुम वैसी ही हो। याद है, एक बार लंच पर अचानक छिपकर सबों को भयभीत कर दिया था तुमने! मल्लाह ने किचन में घुसकर...''

अवंती ने कहा, ''याद नहीं था, याद आ गया।''

संतोष ने तो जोरदार शब्दों में कहा, ''थोड़ी देर पहले उसने पानी में किसी भारी चीज़ के गिरने की आवाज सुनी है। सभी उस समय संतोष को मारने पर उतारू हो गए और कहा, उस समय क्यों नहीं बताया साला।''

''आह अरण्य! तुममें कोई बदलाव नहीं आया। इस भद्दे शब्द को तुम छोड़ नहीं सके?''

अरण्य ने निःसंकोच कहा, ''यह शब्द कितना भावव्यंजक है, तुम नहीं जानती, अवंती। वह भाव प्रकट करने का बेजोड़ आदर्श है। उसे त्याग देने से अभिव्यक्ति की नींव लड़खड़ाने लगती है।''

उसके बाद पैट के पॉकेट से रूमाल निकाल माथे का पसीना पोंछकर बोला, ''आदत बदलने का क्या कोई कारण घटित हुआ? 'पृथ्वी' को 'भाई' कहने की कोई परिस्थिति पैदा हुई है? धीरे-धीरे तो पृथ्वी के तमाम लोगों को साला कहने की इच्छा जग रही है।''

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