नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
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दिन निकलते जाते हैं अपनी धीमी रफ्तार से। स्कूल की लड़कियाँ कॉलेज में दाखिल
होती हैं, कॉलेज के लड़के दफ्तर में जा समाते हैं।स्कूल की चारदीवारी से निकल कर कॉलेज में कदम रखते ही लड़कियों में बालिग होने का एक अहंकार आ जाता है, हिम्मत बढ़ जाती है। यह उथल-पुथल फर्स्ट ईयर में ही कुछ अधिक होती है। मगर हिम्मत की बात? इस युग की दृष्टि से उस हिम्मत को टीन की तलवार का नकली युद्ध ही कहा जाएगा। बात कुछ ऐसी है-
छः-सात सहेलियों ने मिलकर 'लाइट हाउस' में जाकर सिनेमा देखने का प्रोग्राम बनाया है। 'प्राप्रवयस्कों के लिए' बनी फिल्म है। सबने घर में गर्दन ऊँची करके घोषणा कर रखी है, कॉलेज से लौटते समय सिनेमा देखने जायेंगी।
अकेले किस तरह? छ: लोग मिलकर अकेले होते हैं? तुम लोग अच्छा मजाक कर लेते हो।
अनिन्दिता और शाश्वती भी कहकर आई है। मगर उनके उस सनातनी परिवार में घोषणा सशब्द नहीं हो सकी।......''दोस्तों ने बहुत कहा, सब लोग एक साथ मिलकर जायेंगे''....इत्यादि, इत्यादि।
मैटिनी शो देखने की बात है। शुरू के दो क्लास करके या बिल्कुल ही कोई क्लास बिना किये सब लोग एकजुट होकर निकल चलना है। अगर हाथ में कुछ समय रहा तो न्यू-मार्केट में जरा ताक-झाँक करने में ही वह समय निकल जायगा।
टिकट काटकर रखने की जिम्मेदारी चित्रा ने ली है।
उसने अपने छोटे भैया को मनाकर इस काम के लिए राज़ी कर लिया है। सबने अपने-अपने टिकट के पैसे दे दिये हैं। चित्रा का भाई आलोक टिकट लेकर 'लाइट हाउस' के सामने खड़ा रहेगा, ये लोग जाकर उठा लेंगे, ऐसा ही तय हुआ है।
हालाँकि चित्रा ने आलोक से कहा है कि वह भी जा सकता है। पर उसने हँसकर सावधान कर दिया है, ''खबरदार, मेरी किसी सहेली की बगल में बैठने की कोशिश मत करना। या तो मेरी बगल में बैठना या किसी दूसरे 'रो' में।
कॉलेज से भागकर जब सब लोग बस में चढ़े, कैसे अद्मुत रोमाँच का अनुभव हो रहा था। जैसे दिग्विजय करने निकल हों! खुशी से छलकती हुई जब वे लाईट हाउस पहुँचीं, मानो छ: परियाँ हों (अवश्य ही नाक-नक्शे और रंगत को छोड़ कर,) जैसै दुनिया में जितने भी रंग हैं सबकी प्रदर्शनी लगा दी हों।
प्रिंटेड साड़ी पहनी थीं सब की सब, चाहे वह सूती हो या रेशमी। हरेक साड़ी ही तो रंगों का मेला लेकर प्रस्तुत थी।
खुशी से छलकते ऐसे चेहरे मुरझा गये जब आलोक से मिलकर खबर सुनी उन लोगों ने। और अनिन्दिता और शाश्वती के सर पर तो मानो आसमान टूट पड़ा।
मैटिनी शो का टिकट नहीं मिला। चित्रा के भाई आलोक ने इवनिंग शो का टिकट खरीद कर रखा है।
चित्रा बोली, "हाय राम! अब क्या होगा?" आलोक बोला, "होगा क्या? एक बार न्यू-मार्केट चली जाओ तुमलोग, पता भी नहीं चलेगा कहाँ से समय निकल गया। घड़ी हाथ में न हो तो शायद नाइट शो तक ही पहुँच पाओगी।"
"अच्छा, वह सब तुम्हें समझाने की जरूरत नहीं है। मुश्किल तो यह है कि घर में क्या जवाब दिया जाएगा?"
"क्यों, घर में कह कर नहीं आई?"
चित्रा लम्बी साँस छोड़कर बोली, "वह तो मैटिनी शो के लिए।"
"मैटिनी में नहीं मिला, इवनिंग शो देख लिया, यही न? तीन घंटे के फर्क से कोई तुमलोगों को फाँसी पर नहीं चढ़ा देगा।"
रेखा, कल्याणी, माधुरी, स्निग्धा सबके कल-गुंजन से जो पता चला वह यह कि फाँसी न हो, आजीवन कारावास तो हो ही सकता है। जिंदगी में फिर कभी अकेले सिनेमा देखने को नहीं आने देंगे।
मगर अनिन्दिता और शाश्वती का क्या हुआ? उन दोनों ने केवल कलगुंजन ही नहीं, प्रबल प्रतिरोध किया। उन्हें तो सिनेमा देखने के बाद हावड़ा स्टेशन जाकर ट्रेन पकड़नी होगी, मंडल विस्तर नामक एक अख्यात गाँव में पहुँचना पड़ेगा। और केवल पहुँचना ही नहीं, एक जोड़े बुढ्डे-बुढ्डी की दो जोड़ी अचंभित दृष्टियों का सामना करना पड़ेगा।
अग्निदृष्टि फिर भी सहन होती है, मगर वैसी अचंभित दृष्टि सहन नहीं होती है।
'हाजिर-जवाब' अनिन्दिता बोल पड़ी, "ऐ चित्रा, तुम लोगों के नसीब में चाहे फाँसी हो या आजीवन कारादंड, हमें बखा दो भाई! जिंदा रहे तो ढेर सिनेमादेख लेगे।''
आलोक आगे आकर बोला, "वाह! आपको ही क्यों छोड़ दिया जाय? प्राणदंड होगा तो सभी को एकसाथ होगा।"
शाश्वती धीरे से बोली, "हमारे साथ एक बड़ी मुश्किल है।"
आलोक हँसकर बोला, "दोनों को ही बड़ी मुश्किल है?''
"हाँ, क्योंकि दोनों एक ही घर से हैं।"
"ओह! माफ कीजिएगा। मगर क्या मुश्किल है, जान सकता हूँ क्या?'' चित्रा बोली, "मैं ही बता देती हूँ ये दोनों कलकत्ते के बाहर रहती हैं।"
आलोक हैरान होकर बोला, "कलकत्ते के बाहर? कहाँ?''
कहीं चित्रा वह भद्दा-सा नाम बता न बैठे, इसीलिए अनिन्दिता जल्दी से बोल उठी, "है एक गाँव हावड़ा जिला के एकदम भीतर जाकर, नाम सुनेंगे तो आप बेहोश हो जायेंगे।"
सच ही तो है। नाम भी कितना भद्दा है! कितने अच्छे-अच्छे नाम वाले गाँव हैं उस लाइन में, इन्हीं लोगों के गाँव का ऐसा गंदा नाम है।
अनिन्दिता की बात सुनकर ही चतुर आलोक समझ गया। इसलिए हँस कर बोला, "रहने दीजिए तब, इतने झमेले के भीतर अब बेहोश होने का शौक नहीं है।...ट्रेन में कितना समय लगता है, यह तो बताइये?''
शाश्वती बोली, "एक घंटा पाँच मिनट।"
"एक घंटा पाँच...एक घंटा पाँच मिनट!...''
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