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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15406
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


रमोला का निर्देश पाकर दुबारा डॉक्टर को बुलाने के इरादे से नीचे उतर रहा था मुक्ति। पास ही घर है उनका, ऐसे तो छत पर जाकर डॉक्टर के बच्चों को पुकार कर कह देने से ही काम चल जाता है, पर ऐसे मौसम की बात कुछ और है।
रमोला ने मुक्तिनाथ को एक पारिवारिक जिम्मेदारी सौंपी, ऐसे आपतकाल में भी यह चिंता मुक्तिनाथ के हृदय पर शांतिजल का काम कर रही है। उसी से प्रोत्साहित होकर मुक्तिनाथ डॉक्टर बुलाने की कोशिश में लगा था कि शक्तिनाथ की पुकार सुनकर पास जाकर खड़ा हुआ।
शक्तिनाथ ने पूछा, "भक्ति लौटा नहीं अभी तक?"
"नहीं। वीरू बुलाने गया था, वह भी...'' शक्तिनाथ चौंक उठे, "वीरू बुलाने गया है? ऐसे मौसम में? किसने भेजा उसे?"
"छोटीचाची।"
पत्नी से छोटी उम्र की चाची को 'चाची' कहकर बुलाना, आदर-सम्मान दिखाना, आचार अनुष्ठान के समय प्रणाम करना निस्संदेह कठिन कार्य है परंतु वह कठिन कार्य मुक्तिनाथ करता आया है, अपनी पत्नी एवं कन्या के ताने सहकर भी।
सदा से धीर-स्थिर शक्तिनाथ असहिष्णु स्वर में बोले, "अहा-हा! उन्हें किसने कहा यह सब करने को! एक को तो बुखार है, अब दूसरे को भी बीमार करना है क्या?"
"जैसा ठीक समझती हैं। किसी बात में औरों की सलाह तो लेती नहीं हैं।"
"हाँ।.......कहना बेकार है। इसे 'होनी' ही समझ लेना पड़ेगा। मगर अब किया क्या जाय, बताओ तो?"
मुक्तिनाथ चकित होकर बोला, "किस बात का?"
धीरे-से शक्तिनाथ बोले, "इस परिवार का। मकान इतना पुराना हो चला है, अचानक अगर समूचा ढह जाय तो क्या होगा, यही सोच रहा हूँ।"
शक्तिनाथ घबराहट में आकर मुक्तिनाथ से सलाह कर रहे हैं! सोचा भी नहीं जा सकता है।
शायद इसी अनहोनी बात ने ही मुक्तिनाथ के भीतर एक आत्मविश्वास पैदा कर दिया? उसी विश्वास के साथ वह बोला, "चिंता की कोई बात नहीं है मझले चाचा। भगवान् हैं कि नहीं? वही रक्षा करेंगे।"
शक्तिनाथ अचानक मानो बालक हो गये। असहाय स्वर में बोले, "तुम कहते हो? कुछ नहीं होगा?"
"मुझे तो दृढ़ विश्वास है, कुछ नहीं होगा।"
"अच्छी बात है। तुम्हारी बात से मन को शक्ति मिली। मुझे तो-''
और कुछ नहीं बोले। दूसरी ओर चले गये।
पानी में एकदम भीगकर, बारिश के छींटें सहकर क्षेत्रबाला घसीट कर गोयठे की टोकरी को ऊपर बरामदे पर खींच रही थीं। शक्तिनाथ क्षेत्रबाला को गीले कपड़ों में देखकर नाराज़ स्वर में बोल उठे, "उन फालतू चीजों के लिए अपनी जान आफत में डाल रही है? क्या होगा? तेरी चिता जलाने के काम आएँगे क्या?"
क्षेत्रबाला चकित हो गईं। मझले भैया के मुँह से ऐसी बात! पर वह घबराने वाली तो थी नहीं। इसीलिए अनायास ही बोलीं, "वैसा हो पाता तो अच्छा ही होता। बुढ़िया के लिए लकड़ी जुटाना पड़ रहा है, इस कारण घर वाले गाली तो नहीं देते! मगर अभी-अभी मर सकूँ ऐसा नसीब कहीं मेरा?...रात निकलते ही तो चूल्हा सुलगाने के लिए इसी क्षेत्रबाला को जाना पड़ेगा। उसका इंतजाम करना पड़ेगा कि नहीं? सुबह टाइम पर खाना तो देना ही पड़ेगा न?"
शक्तिनाथ क्षेत्रबाला के विश्वास-भरे चेहरे की ओर देखने लगे। रात बीतते ही चूल्हा सुलगाना, खाना पकाना पड़ेगा, ऐसा विश्वास है उसके मन में।
गंभीर भाव से हँसकर शक्तिनाथ बोले, "खेतू तू परसो ही कह रही थी न कि तुझे काशी भेजने का इंतजाम कर दूँ?"
क्षेत्रबाला ने जोर देकर कहा, "वह बात अब भी कह रही हूँ। मगर जब तक वह हो नहीं रहा है तब तक इस परिवार की गुलामी से मुक्ति कहाँ मिल रही है?''
शक्तिनाथ फिर मुस्कुरा कर बोले, "अब भी तुझे गुलामी करने को कौन कहता है खेतू?"
''पता नहीं मझले भैया, शायद मेरे यमराज कहते होंगे।...खिड़की के नीचे से पानी बह रहा है, तुम्हारे पाँव गीले हो रहे हैं, कमरे में जाओ भैया!"
"तुझे क्या लगता है खेतू कि कमरा अब और अधिक देर तक बच पायगा?"
क्षेत्रबाला निश्चिंत स्वर में बोलीं, "ढाई हाथ चौड़ी दीवार की नींव पड़ी है, ऐसे ही गिर जायगी?''

"कच्ची मिट्टी की दीवार है खेतू, बालू सीमेंट चूने की नहीं।"
"न सही।...''
इस विश्वास-भरे चेहरे के सामने खड़े होकर शक्तिनाथ अचानक बड़े लज्जित महसूस करने लगे। अपनी इस आशंका-उत्कंठा से स्वयं ही धरती में गड़ने लगे। जल्दी से बोले, "कल कोई टाइम पर भात नहीं खायेगा, रेल-लाइन सब बेकार हो गये। भक्ति अब तक नहीं लौटा, इसी की सोच लगी है।"

"सोचकर क्या करोगे? किसी ठिकाने पर तो है। बल्कि बाहर निकलने में ही डर है।"
"और छोटीबहू ने जो बीरू को भेज दिया।"
"क्या? बीरू को भेजा? उसे भी बीमार करना है क्या? कैसे भेज सकी? जा कर पूछती हूँ मैं किसके हुकुम से उस बच्चे को ऐसे आँधी-पानी में बाहर जाने को कहा उसने।''
क्षेत्रबाला गोयठे की टोकरी से हाथ निकाल कर झटके-से चल देने को तैयार हो गईं।

मगर शक्तिनाथ ने रोक लिया। बोले," तुझे तो स्वयं भगवान् भी अक्ल नहीं दे सकेंगे, खेतू! अपने बेटे को उन्होंने भेजा है, किसी के हुकुम की क्या आवश्यकता है उन्हें?"
क्षेत्रबाला पल में मुरझा गई। रो पड़ी और बोलीं, "इस घर में अब से इसी तरह तुच्छ प्राणी बनकर जीना पड़ेगा भैया?"
शक्तिनाथ बोले, "इस घर में रहना हो तो ऐसे ही रहना होगा रे खेतू!''
इसी समय ऊपर से नीचे तक गीले होकर मुक्तिनाथ घर लौटा, छाता किसी काम नहीं आया। बोला, "रजनी डॉक्टर मुझे देखकर हैरान रह गया। बोला, "यहाँ तक आये कैसे? खैर, बुखार उतारने के लिए एक और दवा दे दी है उसने।"
जाने के लिए आगे बढ़ा मुक्तिनाथ। ठीक उसी समय एक भयंकर आवाज के साथ सारा घर काँप उठा और फिर एक और धमाके में जैसे सबकुछ विलीन हो गया। जबकि बारिश तब हल्की होने लगी थी। आँधी की चपेट भी कम हो रही थी।
उस समय भक्तिनाथ छाता लेकर बेटे के साथ क्लब से लौट रहा था।

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