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अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15406
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


कभी तो मनीषा नींद से जागकर परोस देती है और कभी अधिक रात हो जाने पर आसन के आगे डब्बा रखकर सो जाती है।
आज मनीषा ने खाना परोस दिया। देकर बोली, "रात तो खत्म होने चली, जो बन पड़े खा लो।"
"बन पड़े?"
भक्ति को तो ऐसा लग रहा था कि डब्बे का आकार थोड़ा और बड़ा होता तो कितना अच्छा होता!

क्षेत्रबाला ने जब इस डब्बे में खाना समेट कर रखा था तब इस परिवार पर कोई अँधेरा नहीं छाया था, अत: क्षेत्रबाला ने पूरा दिल लगाकर यह कार्य सम्पूर्ण किया था।
देखकर भक्तिनाथ अपनी खुशी छिपा नहीं सका। बोला, "कितना कुछ भर दिया है दीदी ने! ये खजूर-गुड़ के संदेश कहाँ से आये?"
"और कहाँ से आयेंगे? तुम्हारे गणपति की दुकान से ही है। मझले जेठजी की एकादशी के व्रत के लिए ही मँगवाये गये थे। पर उनसे अकेले ही चारों खाये नहीं गये, छोटे भाई के लिए दो उठाकर रख दिये।"
खाते-खाते भक्तिनाथ का हाथ रुक गया। एक उदास-गंभीर स्वर में बोला,  "यह स्नेह, ऐसा प्यार-आदमी इसको समझ नहीं पाता है!"
मनीषा धीरे से हँसकर बोली, 'आदमी' जरूर समझ लेता है। जो आदमी नहीं, उसी में समझने की क्षमता नहीं होती है। क्यों, तुम ही तो समझ गये!"
भक्तिनाथ अनमना होकर बोला, "कहाँ समझता हूँ मैं भी? 'श्मशान-वैराग्य' की तरह मन में झलक जाता है कभी। मझले भैया की भी उम्र हो चली है, कभी तो दो पल के लिए भी उनके पास जाकर नहीं बैठता हूँ! सोचता भी नहीं, और कितने दिन रहेंगे ही? अचानक एक दिन निकल जाएँगे!"

मनीषा हँसकर बोली, "कल से दिन-भर बैठे रहना। अभी खा तो लो!" मनीषा के स्वर में गहरी ममता का आभास मिला भक्तिनाथ को। पर वह समझ गया मनीषा उसे रुपये की जगह चवन्नी थमाना चाहती है।...मगर उतना बुरा नहीं लगा अभी क्योंकि उसके मन पर कोई और राग छिड़ा हुआ था।
और फिर परितृप्त भोजन की एक शांत प्रतिक्रिया भी तो होती है।

पहले तो पान पर गुँथे हुए लौंग को निकाल कर तब पान खाता था भक्तिनाथ। अब तो लौंग दुर्लभ हो गये, ऐसे ही पान की खिली बन जाती है फिर भी पुरानी आदत के अनुसार पानी की खिली के नीचे से थोड़ा-सा नोच कर फेंक दिया भक्तिनाथ ने और चिंतित स्वर में कहा, "आज तो एकादशी थी। इसका मतलब कल द्वादशी है। बड़ी बहू का जो ऐटिच्यूड देखा, कल नसीब में क्या है पता नहीं!"
अपने कमरे में जाकर बीच के दरवाजे को भिड़काते हुए हँसकर मनीषा बोली, "होना क्या है! कल ट्रेन मिस होगी, ऑफिस जाना बन्द होगा!"
दरवाजे को अच्छी तरह बन्द कर दिया मनीषा ने।
देख कर लगा जैसे केवल भिड़का दिया हो, पर भक्तिनाथ को पता है मौका देखकर सिटकनी चढ़ा देगी। रोज ही ऐसा करती है मनीषा।
मगर ऐसे दिन भी कहाँ होते हैं जब भक्तिनाथ कमरे में ऊँघते हुए न आता हो? दिनभर की मेहनत के बाद आधी रात को क्षेत्रबाला के आग्रह से तकिये में रुई ठूँसने की तरह पेट में भोजन ठूँसने के बाद जागने की क्षमता भी तो नहीं बचती है।
यह दीदी कह रही है, "चली जाऊँगी!"
ऐसी असम्भव बात अगर सम्भव हो जाए तो क्या होगा, क्या हो सकता है यह सोचने की क्षमता क्षेत्रबाला के भाइयों में नहीं है।

मुन्ना और टुपाई के मझले मामा अर्थात् रमोला के मझले भैया विकास चटर्जी एक मालदार वकील हैं। रात के दस बजे तक उनके घर मुवक्किलों का आना-जाना लगा रहता है, फिर सुबह होते ही भीड़ शुरू हो जाती है।
घर के सामने वाले कमरे में विकास चटर्जी अपने मुवक्किलों को बैठाते हैं, अत: खुद भी बैठे रहते हैं।
कौन किस समय घर आ रहा है और घर से कौन किस समय निकल रहा है, तिरछी निगाह से देखकर विकास भूषण इसका हिसाब रखते हैं। हालाँकि उस 'कौन' में घर के काम-काजी लोगों का ही नाम आता है। केवल तीन लोगों की गृहस्थी में चार दाई-नौकर हैं।
मगर इन तीन सदस्यों में से एक तो अकेले ही सौ के बराबर है। न जाने कितनी बार जॉली निकलती है, कितनी बार लौटती है। जब दूर का रास्ता तय करना होता है तो पापा की गाड़ी पर भी हमला करती है! नहीं तो कभी टैक्सी से, कभी पैदल तो कभी सहेलियों की लाई हुई गाड़ी में घूमती है।
बी.ए. की परीक्षा देने के उपरान्त जॉली का उड़ना कुछ अधिक हो गया है। अभी तक परीक्षा के परिणाम निकले नहीं, पता नहीं किस अनिर्दिष्ट काल के लिए स्थगित है, ऐसी अवस्था में उड़ने के सिवा और करे भी क्या?
आज जब जॉली उड़कर लौटी, तब रात के दस बज रहे थे।
बाहरी लोगों से बातें करते हुए भी विकास भूषण के कान सजग थे। उन्हें सुनाई पड़ा दरवाजे पर एक गाड़ी आकर रुकी। जॉली के अतिरिक्त एक और लड़के और लड़की का स्वर सुनाई पड़ा उन्हें। दरवाजे की ओर तीखी पैनी दृष्टि डाल रखी उन्होंने।
उन्होंने देखा हाथ के बटुए को उछालते हुए उनकी बेटी जॉली गुनगुनाते हुए भीतर चली गई। कीमती सेंट की खुशबू से सारा माहौल भर गया।
जो व्यक्ति कागज-पत्री फैलाकर बैठा था वह भी गर्दन बढ़ाकर देखकर यूँ ही पूछ बैठा, "आपकी बेटी है?"
विकास भूषण गंभीर स्वर में बोले, "नहीं, मेरे घर में रहती है।"
इसके बाद उस व्यक्ति को आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
विकास भूषण सोचने लगे-इतना घूम-फिर कर आने के बाद भी इतनी एनर्जी आती कहाँ से है? अभी भी गुनगुना रही है?
मगर एनर्जी बस वहीं तक ही होती है। थोड़ी देर बाद ही देखा जाएगा उसी हालैत में जॉली बिस्तर पर ढेर हो गई है और उसकी माँ उसे उठकर खाने के लिंए मिन्नतें किये जा रही है और जॉली आँखों को हाथ से ढँककर कह रही है, "ओह मम्मी! डिस्टर्ब मत करो, थोड़ी देर चैन से रहने दो मुझे।"
आज जॉली की एक सहेली के जन्मदिन की पार्टी थी, इसलिए घर में खाने का सवाल नहीं है। जॉली की मम्मी भी इसलिए चैन की साँस ले पाती है।
जॉली के सोफे पर बैठते ही उसकी मम्मी शेफाली बोली, "पार्टी में खाना कैसा रहा?"
अपने बटुए को दूसरे सोफे पर पटक कर जॉली पसर गई और बोली,  "फर्स्टक्लास!''
"फिर भी, सुना तो सही! दो-एक नया नाम तो पता चले!"
"क्या मैंने याद करके रखा है?" जॉली ने नाराजगी दिखाई। और उसे नाराज देखते ही शेफाली दुबक जाती है।
जबकि शेफाली आज बेटी को एक मजेदार बात सुनाना चाहती है। कुछ खास नहीं, जॉली की बुआ के गँवारपन की बात। हँसने वाली बात है, बेटी को भी सुनाकर मजा आएगा।
बोल उठी, "आज जो तमाशा हुआ! रात के साढ़े आठ बज रहे थे, टुपाई आ धमका।"
जॉली सोफे की पीठ पर रखे हुए पैर को नचाते-नचाते बोली-"मगर मुझे तो इसमें कोई तमाशे वाली बात नजर नहीं आई।"
जॉली के उघडे हुए सुघड़ पैरों की ओर देखकर शेफाली का मन खुशी से भर गया। क्या रंग खिला है! दिन-प्रतिदिन जॉली गोरी होती जा रही है!
पहले खुद ही थोड़ा हँसकर फिर शेफाली बोली, "अरे, सुन तो सही पूरी बात।...आ तो गया, चेहरे पर घबराहट, कपड़े अस्त-व्यस्त, मैले-हुआ क्या?...कि अनिन्दिता और उसकी कोई चचेरी बहन, शायद शाश्वती, कॉलेज से घर नहीं लौटी। इसीलिए खोजने निकला है।"
जॉली बोली, "माइ गॉड! रात के साढ़े आठ बजे! खोजने निकल गये?" 
"और नहीं तो क्या!"
शेफाली ही-ही कर हँस पड़ी। फिर बोली, "जबकि वे लोग कहकर गई हैं कि सिनेमा देख कर लौटेंगी!"
मन-ही-मन जॉली कुछ गुनगुना रही थी। सोफे पर पाँव ठोक कर ही उस पर ताल देने लगी और बोली, "ओ माँ! वे सब तो अच्छी लड़कियाँ हैं! हमारे जैसी फालतू तो नहीं, अकेले सिनेमा चली जाती हैं?''
शेफाली ने सुन रखा था झुंड बनाकर लड़कियाँ जाएँगी फिर भी यह बात हजम कर गई और बोली, "अकेले या साथr है कोई, क्या पता?''
इसी समय नीचे के कमरे से निपट कर विकास भूषण ऊपर आये। शेफाली की बात उनके कानों तक आई। "अकेले या साथी है कोई, क्या पता!"
विकास भूषण इस कथन का अर्थ नहीं समझ पाये मगर पूछ भी नहीं पा रहे  इतने में शेफाली ने बात को और स्पष्ट किया। क्योंकि विकास भूषण के सामने उनकी बहन के घर के गँवारपन का किस्सा जमकर कह पाना कोई कम खुशी की बात तो नहीं है!
इसलिए शेफाली विस्तार में कहने लगी, "अरे बाबा, बात ऐसी हुई-उन लोगों ने तय किया था कॉलेज से खिसक कर कुछ लड़कियाँ 'लाइट-हाउस' में पिक्चर देखेंगी, शायद मैटिनी का टिकट मिला नहीं, इवनिंग शो में गये।"
जॉली उठकर बैठी, तन गई और बोली, "बात क्या है पापा? तुम्हारी भाँजी लाइटहाउस में? उस पर से 'ए' मार्क वाली पिक्चर?"
विकास भूषण गंभीर भाव से बोले, "क्यों कोई जा नहीं सकता क्या? वह सिर्फ तुम माँ-बेटी के लिए रिजर्व रहता है क्या?''
शेफाली हँसते-हँसते बोली, "वही ठीक होता। जानती है जॉली, क्या हुआ फिर? घड़ी के काँटे के हिसाब से लड़कियाँ घर नहीं पहुँचीं तो घर में रोना-धोना मच गया।-ही-ही-ही, चारों दिशा में लोग ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े।"
इस व्यंग्य-भरी हँसी के पीछे केवल ननद के घर के गँवारपन की व्याख्या थी या कोई और सूक्ष्म उद्देश्य था, यही समझने की कोशिश करने लगी जॉली!
शेफाली ने हँसते-हँसते अपनी बात पूरी की, "इतना ही नहीं, लड़की के बाप के चाचा महाभारत खोलकर शायद 'शांतिपर्व' पाठ करने लगे और बाप की बुआ 'विपदभंजन' स्तोत्र का पाठ करने लग गईं, बाप की चाची शायद 'दुर्गा नाम' जपने लगी और लड़की की माँ ने तो अवश्य ही मनौती माँग ली होगी। सोच लो! ऐसे घर में अगर हमारी जॉली को रहना पड़ता ही-ही-ही, अच्छा जी-!"
शेफाली की हँसी पर जैसे कोई एक तमाचा जड़ गया।
सोफे से उतर कर अब जॉली मानो अपने-आप में समा कर सोने के कमरे की ओर जाते-जाते बोली, "ऐसे किसी घर में रहने को मिलता तो निहाल हो जाती मम्मी! जिन लड़कियों के घर लौटने में ज़रा-सी देर हो जाय तो घर में रोना-धोना शुरू हो जाता है, विपत्ति से बचाने के लिए स्तोत्र-पाठ होता है और मनौतियाँ माँगी जाती हैं उनके सौभाग्य पर मेरे जैसी अभागी लड़की को जलन ही होती है।" जॉली जिधर से निकल गई उस सूने रास्ते की ओर चोट खाये हुए चेहरे से देखकर उखड़े स्वर में शेफाली बोली, "तू क्या कह गई जॉली? जॉली!"
विकास भूषण भी उस ओर देख कर बोले, "जो कहा, गलत नहीं कहा।"
"गलत नहीं कहा? तुम भी ऐसा कह रहे हो? अपनी हैसियत से बढ़-चढ़ कर बेटी को नहीं पाला क्या हमने? अब भी नहीं कर रहे हैं क्या?....जबकि वह मेरे मुँह पर अपने को 'अभागी' कह गई?''

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