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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15406
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


खैर, जों भी हो, इतने ऐशो-आराम में पलने के बावजूद शाश्वती अपनी मर्जी से यहाँ आकर रह गई, यह तो ऐसा हुआ जैसे महारानी को बासी भात खाने का
शौक हुआ हो। इसीलिए उसके सामने थोड़ा झुक ही जाती है अनिन्दिता।
हालाँकि शुरू-शुरू में अनिन्दिता अपनी उस अमीर चचेरी बहन से कतराती थी। रमोला ने भी यही निर्देश दिया था। कहा था, "तुम्हारे बाबूजी उसके बाबूजी से गरीब तो नहीं हैं, मगर वह विलायती कायदे में पली-बढ़ी है, उससे अधिक मेलजोल करने की जरूरत नहीं।" मगर वह लड़की इतना गले पड़ती है, इतनी जबर्दस्त है कि उससे आँख चुराना कठिन है।
अनिन्दिता को 'अपना' बना लेने में उसे देर न लगी।
उसका हौसला देखकर अनिन्दिता भी प्रगति के पथ पर तेज कदम भरने लगी।
मगर आज ठहरी हुई इस रेलगाड़ी में बैठकर बाहर के घने अँधकार को देख कर अनिन्दिता को अपनी प्रगति के बारे में विशेष प्रोत्साहन नहीं मिला। बल्कि शाश्वती को दोषी ठहराने के अंदाज में बोली, "अगर मैं अकेली होती तो कभी भी चित्रा के उस मस्तान भैया की बात पर राजी नहीं होती। तूने झट से हाँ कर दी, इसीलिए-"
अनिन्दिता के स्वर में दोषारोपण के साथ ही क्षोभ था।
ट्रेन के भीतर और बाहर का चेहरा देख कर शाश्वती का भी दिल बैठा जा रहा था। सुना तो है उसने कि बीच रास्ते में ट्रेन रोक कर लूट-मार की जाती है। क्या पता यह उसी की तैयारी हो! फिर भी चेहरे पर साहस लाकर वह बोली,  "कितनी बार 'ना' करती बाबा? कहते हुए खुद को ही कैदी या गुलाम जैसा महसूस कर रही थी। तो फिर सोच ले औरों को कैसा लग रहा होगा? आखिर हमारी भी कोई प्रेस्टीज है या नहीं?"
"जब पिटाई मिलेगी तो प्रेस्टीज निकल जाएगा।"
"पिटाई?'' इस मुसीबत में भी हँसी आ गई शाश्वती को। बोली, "इतना थोड़े ही होगा?"
"अरे बाबा, हाथ से नहीं तो मुँह से मारेंगे ही। सच बात तो यह है कि जो दुर्गति हमारी होगी, तू सोच भी नहीं सकती है। कब पहुँचेंगे हम, पहुँचेंगे भी कि नहीं-कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मेरा तो रोने को जी कर रहा है। क्यों बेकार हम लोग इस झमेले में फँस गये!"
क्या शाश्वती भी ऐसा ही सोच रही थी? फिर भी हिम्मत करके बोली,  "देख, होनी को कौन टाल सकता है? सिनेमा देखने नहीं जाते तो भी ऐसा हो सकता था अनु! अचानक ही गाड़ी रुक कर जा

"यह सब कोई नहीं सुनेगा रे!" अनिन्दिता बोली, "माँ मेरी एक बात भी नहीं मानती हें।"
शाश्वती भड़क उठी, "नहीं मानती है?''
"नहीं। बचपन में अगर ऐसे ही कभी पेट की गड़बड़ी होती थी तो माँ कहती थी, जरूर कुछ बुरा-भला खा लिया होगा तूने।"
शाश्वती गम्भीर भाव से बोली, "तो फिर आज क्या कहेंगी?"
"पता नहीं क्या कहेंगी। शायद यह भी कह सकती हैं, कहीं से कुछ गंदा काम करके आई है-मेरा तो दिल कर रहा है, खिड़की से कूद कर जान दे दूँ!''
"जान तो नहीं जायगी क्योंकि ट्रेन खड़ी है। अधिक-से-अधिक हाथ-पाँव टूटेंगे। हाँ, लेकिन चाची अगर ऐसी बात सोचें तो मरने से कम क्या है!" कहकर धीरे-से हँस पड़ी शाश्वती।
"पता नहीं, तू किस तरह हँस रही है शाश्वती!" अनिन्दिता बोली, "मेरा तो गला फाड़कर रोने को दिल कर रहा है।"
शाश्वती बोली, "मेरा भी तो वही दिल कर रहा है मगर रोने से जल्द घर तो नहीं पहुँच जाएँगे न? उससे अच्छा है हँसकर-।"
अनिन्दिता फिर खिड़की से बाहर झाँकने लगी। इस बार उसे दूर रेल लाइन के दूसरे छोर से दो आदमी दिखाई पड़े। एक के हाथ में लालटेन थी।
घने अँधकार में लालटेन की वह रोशनी किसी जंगली जानवर की खूँखार आँख जैसी लगी।
शाश्वती बोली, "चलो, कम-से-कम अँधेरे में एक किरण तो दिखाई पड़ी। अनु देख 'लाइट हाउस' वाली पिक्चर में ऐसा ही एक 'सीन' था न? अँधेरी रेल-लाइन पर हाथ में बत्ती लिये खड़ा एक आदमी!
अनिन्दिता को याद आ गया। बोली, "हाँ रे, ठीक कह रही है। मगर पिक्चर की कहानी ही ठीक से समझ में नहीं आई। अब तो और भी सब गड़बड़ा गया है। तू तो हिन्दी जानती है, डायलॉग जरूर समझ रही होगी।"
डायलॉग और दृश्य कुछ भी रुचि-सम्पन्न नहीं था-पिक्चर प्राप्त वयस्कों के लिए थी इसलिए उसका पूरा सदुपयोग कर लिया गया था।
पास ही दो लड़के बैठे थे, यह सोचकर फिल्म देखते-देखते शाश्वती का चेहरा शर्म से लाल हो रहा था।
शाश्वती बोली, "अच्छा हुआ, तू समझ नहीं पाई! इतने भद्दे गाने थे। उफ, पता नहीं क्यों चित्रा ने ऐसी पिक्चर के टिकट कटवाये।"
अनिन्दिता बोली, "मुझे लगता है, ये सब उसके उस मस्तान भैया की
चालाकी थी। इस पिक्चर को चुनना और मैटिनी के बदले इवनिंग शो के टिकट लेना सब-कुछ।"
"वाह! इसमें उसको क्या लाभ हुआ?"
"समझती क्यों नहीं? मैटिनी शो देखते तो इतनी देर तक लड़कियों के साथ गप-शप करने का मौका मिलता क्या? उसमें तो हम हॉल में जाते, फिल्म देखते और निकल आते।"
शाश्वती के मन में थोड़ी रंगीनी छायी हुई थी। इसलिए उसने ऐसा शक नहीं किया। बोली, "वे जिस सोसाइटी से है वहाँ लड़कियों के साथ गप-शप करने के ढेर मौके मिल जाते हैं। हमारे भैया, मझले-भैया जैसी करुण दशा नहीं है उनकी।"
"भैया और मझले भैया" मतलब मुक्तिनाथ के बेटे, जिनके घर का नाम है मुन्ना और टुपाई। बड़े का नाम ही मुन्ना है। अत: अब उस नाम पर घर के और किसी बच्चे का अधिकार नहीं रहा।
इतनी मुसीबत में होकर भी अनिन्दिता के चेहरे पर कौतुक झलक उठा। बोली, "तू उन्हें जितना भोली समझती है उतने नहीं हैं वे। भैया तो अपने बॉस की बेटी के साथ जम कर इश्क लड़ा रहे हैं और मझले भैया तो कब से मझली मामी की भाँजी के साथ फँसे हुए हैं।"
"ओ माँ! ऐसी बात है? इतने दिन से कहा क्यों नहीं फिर?"
"अरे मत पूछ! भैया तो इतने क्रोधी स्वभाव के हैं, अगर पता चल जाय कि मैं बताती फिर रही हूँ मुझे जिंदा गाड़ देंगे। मगर हाँ, मझले भैया माँ से हँस-हँस कर कह रहे थे, अभी किसी को भैया कहेंगे नहीं! मालिक को पता चल गया तो नौकरी चली जायगी। और कुछ दिन बाद मालिक खुद ही बुलाकर प्रोमोशन देकर दामाद करने लायक बना लेंगे। अभी सोचते हैं, उन्हीं की खिदमतगारी करने के लिए रोज भैया उनके घर जाते हैं।...माँ खूब हँस रही थीं सुनकर।"
उम्र ही ऐसी है इनकी।
एक पल डरना, दूसरे ही पल हँसना शुरू। फिर समस्या याद आ गई तो एक ने दूसरे से पूछा, "ए! कितना टाइम हुआ?"
"बारह बजने में बीस।"
"उफ! इससे तो अच्छा होता ट्रेन में डाकू आकर हमें मार ही डालते। पूरे घंटेभर से इस बीच मैदान में हम अडिग होकर पड़े हैं। सोच भी नहीं सकती मैं!" 
"हाँ रे। ठीक कहती है तू!"
"सुन शाश्वती, फिल्म की बात नहीं बताते हैं। कुछ और सोच लेते हैं, चल!" 

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