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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

5

उनका जिक्र इस कारण छोड़ा क्योंकि उन्हीं की वजह से अपने दोस्त रमेश को मैंने खो दिया। तब रमेश ने मेरे जीवन को अशान्ति से भर दिया। जब प्रबल इच्छा होती कोई आये और योगासन से खींचकर इस संसार के रूप, रस, गंध के द्वार पर लाकर खड़ा करे तब रमेश मुझे समझाता, कुलकुन्डलिनी की शक्ति का रहस्य क्या है? आत्मा को किस प्रकार प्रमाणित करते हैं, शक्ति प्राणायाम, वैष्णव प्राणायाम में क्या अन्तर है आदि, आदि। और ना जाने क्या-क्या।

वह भारी ज्ञानी बन बैठा था। उसकी इन बातों में भाग लेने में मुझे जरा भी अच्छा ना लगता। उस पर हँसी आती, पर इन सब तथ्यों में उससे पीछे रहना भी मेरे लिए लज्जाजनक बात थी। तभी तो ज्यादा-ज्यादा मैं उन सब आध्यात्मिक तथ्यों को जानने में जुट जाता।

मतलब गुस्से के मारे अपना ही सिर पीटना। लेकिन यह सब चल ना पाया। साथ में हमारी मित्रता की डोर भी टिकी नहीं। उसमें गांठ आई तो मैंने, उसे तोड़ कर गांव जाना ही श्रेयस्कर समझा।

क्या आप लोग सप्रश्न उन्मुख हैं? यह जानने के लिए-मैं एक जवान मर्द कुछ काम-धाम भी करता था या नहीं? यह भी जिज्ञासा रखते ही होंगे, मेरी विद्या की दौड़ कितनी थी?

काम तो करता था और विद्या भी अर्जित की थी। मैं तो वंश का कुलदीपक था।

मेरे परिवार में पहला बी.ए. था। मेरे पिता, चाचा मिडिल पास थे। बाकी सब स्कूल की चौखट से ही मां सरस्वती को प्रणाम कर लक्ष्मी की आराधना में लग गये थे। यहां तक मेरे भाई भी जो चचेरे, ताया या फुफेरे थे।

मैं पिता की एकमात्र सन्तान था तभी मां की प्रेरणा से मैं उन सब हदों को पार कर गया। और ग्रेजुएट बना।

विद्या ने मुझे इस परिवार में सम्मानित आसन पर बिठाया, तभी तो बाकी लड़के जिन अपराधों के कारण सजा पाते मैं उनसे बच जाता।

इसका प्रमाण तो उन बुरे कारनामों से ही मिल जाता है जिन्हें मैं कलकत्ता के निवास के दौरान किया करता था।

अगर मुझ पर सन्देह होता तो ताया जी ने कलकत्ता जाकर मुझ पर कुछ दिन निगरानी रख या जासूसी करके मुझे बुलाया। पूछा, ''तुम यहां सारा दिन क्या करते हो?''

मैंने अनायास कह दिया, किताबें पढ़ता हूं। कहा तो यह झूठ भी ना था। किताबें पढ़ता था और काफी मात्रा में पढ़ता था।

वह बोले, ''तुम्हें जेब खर्च के तौर पर जो रुपये मिलते हैं क्या उनसे गुजारा नहीं होता? तुम और रुपये की मांग करते हो।''

मैं अन्दर से कठोर हो जाता पर ऊपरी तौर पर नरम सुर से कहा, ''हां लेता तो हूं इससे कम में गुजारा नहीं होता।''

''लेकिन क्यों, तुम्हें जो मिलता है वह तो कम नहीं है।'' मैंने भी कोमल-कठोर का मिश्रण रख कर ही जबाव दिया, ''हां, एक इंसान के गुजारे के लायक कम नहीं बल्कि अधिक हैं। महाराज और यह तो इससे भी कम में चला लेते हैं।''

ताया जी दुख भरे स्वर से बोले, ''मैं क्या तुम्हें नौकरों की तरह रहने के लिए कह रहा था। फिर भी गृहस्थ घर के बेटे...।''

''मैं गृहस्थ घर से हूं याद रखूंगा। किताब-भी नहीं खरीदूंगा। मुझे तो यही लगता है आप लोगों पर निर्भर ना रह कर मुझे कुछ काम करना चाहिए। कहां, तक बैठे-बैठे रोटियां तोड़ूंगा।'' कहा और कहकर बूढ़े आदमी की प्रतिक्रिया पर दृष्टिपात भी करना ना भूला।''

हां, मेरी धारणानुसार ही प्रतिक्रिया हुई, वे प्रतिवाद करने लगे, ''क्या कहते हो? नौकरी क्या करेगा? तू तो जो भी करता है वह तो एक दफ्तर का बड़े बाबू का काम है। पहले कारोबार का हिसाब रखने के लिए और पूरा हिसाब-किताब सरकार के पास जमा रखने के लिए तनख्वाह देकर आदमी नहीं रखना पड़ता था।''

हां, मैं ही यह काम करता था। मेरा यही काम था।

मैंने अर्थशास्त्र लिया था तभी हिसाब में पारंगत था। तभी हमारे संयुक्त परिवार के कारोबार में घर के सभी लड़कों को झोंका गया था। पूरे हिसाब रक्षण का भार मुझ पर डाला गया था या मुझे उस भट्टी में झोंक कर हिसाब रक्षक को छुड़ाया गया जो तनख्वाह लिया करता था।

वह काम मैं पटुता से करता था और मुझे पसंद भी था वह काम। लेकिन जब मुझे पैसे का ताना दिया गया तभी मैंने आत्मसम्मान का कवच धारण कर डाला। कहा, ''वह फिर भी आपके नौकर की माफिक था। मैं तो वैसे नहीं रह सकता।''

अचानक ताया जी हो-हो कर हँस पड़े ''रहेगा नहीं, रहना ही पड़ेगा। तू मेरे पिता का नौकर है, हमारे पुरखों का नौकर है, यह चाकरी तू छोड़ना भी चाहे तब भी नहीं छोड़ सकेगा।''

मैंने फिर भी अपना मिजाज दिखाया, ''फिर भी बाहर कहीं नौकरी करने से अपना खर्चा तो चला ही लूंगा। फालतू खर्चा भी तो करता हूं। उसमें मेरे मन में तो शान्ति रहेगी। अब सिर्फ यही लगेगा आपके पैसों को जाया कर रहा हूं।''

ताया जी विगलित हुए और साथ में चंचल भी। बोले, ''हमारा पैसा यानि तेरा नहीं है तेरे बाप, दादा का पैसा तेरा भी है। मान, अभिमान त्याग कर किसी अन्यत्र गुलामी का ख्याल भी त्याग कर। तू हिसाब रख रहा है, निगरानी कर रहा है, इससे हम लोग निश्चिन्त हैं। एक आदमी तनख्वाह देकर रखने से ही हजार झंझट खड़े होंगे। ठीक है, तेरा जेब खर्चा और बढ़ा देंगे। नौकरी करने की जरूरत नहीं। अरे यह भी तो एक नौकरी है, हमारा इतना बड़ा भैया, मझले भैया तो दूसरा व्यवसाय करने जा रहे हैं। गांव-गांव में नलकूप लगाये जा रहे हैं। उन पम्प मशीनों का ऑर्डर हथियाना चाहते हैं। हां, कर लेंगे क्या पता। मुझे से ही परामर्श लेना है, तू ही हमारी आशा है।''

बस शासन की यही परिणति थी। मेरे प्रति इतना विश्वास था। थोड़ा विद्या के प्रति सम्मान था जिससे उनका विश्वास गहरा हो गया। मैं पैसा किताब खरीदने के लिए लेता हूं। किताबें खरीदना भी फालतू खर्चे में ही था पर उसमें कोई भी दोष ना था तभी मेरा दोष दब ढक गया।

मुझे अनुशासन में लाने की जगह वह और ज्यादा जेब खर्च बढ़ा कर चले गये।

रमेश बोला-वाह-वाह क्या मामला है? किला फतह।

यानि उस वक्त का रमेश जो मुझे टीन का छप्पर और खून कमरे में ले जाकर भी ऊंचे समाज का प्रलोभन दिखाया करता था।

उससे मैं हारना भी नहीं चाहता और कुन्डलिनी रहस्य पढ़ना भी विष पान जैसा लगता था। तभी तो रमेश को पराजित करने या उससे मुक्ति पाने के लिए कांचनगर भाग आया।

निर्मला की मौत के बाद जो आया था वह? अब पहली बार वापिस लौटा।

काफी अनुरोध, उपरोध के बावजूद भी नहीं आया। इसी बीच घर में यह बात प्रचारित हो चुकी थी कि (शायद नौकरों ने ही किया था) मैं साधु बन गया हूं।

तभी तो सबने एक विशेष अर्थ में मुझे निहारा। हालांकि मैंने गेरुआ वस्त्र पहना था। मेरे बाल छोटे-छोटे थे और दाढ़ी बढ़ी थी पर मेरे चेहरे पर जो एक शुष्कता थी मुझे उसी ने ही विशिष्टता की पदवी दे दी थी।

पहल नम्बर पर मां आई। हां, दादी, ताई नहीं स्वयं मां। यह हमारे परिवार की परम्परा के विपरीत नीति थी। क्योंकि अपने बेटे या नाती, नतिन के बारे में कौतूहल या निन्दा करना निन्दनीय था। मां उदासीन रहे और दूसरे पूछताछ करें यही तो सभ्यता या विधि के अनुरूप बात होती थी।

मां उस दिन सभ्यता का बेड़ा जाल पार करके आई। पहले यही पूछा, ''मां-बाप जिन्दा रहते मूंछें काट डालीं, मैंने हँस कर कहा, ''मां-बाप के साथ मूंछों का कैसा सम्बन्ध। मां गम्भीर मुद्रा में बोली, क्या होता है वह तो पता नहीं पर मूंछों का कैसा सम्बन्ध। मां गम्भीर मुद्रा में बोली, क्या होता है वह तो पता नहीं पर मूंछें मुड़वानी नहीं चाहिए यही पता है। मैं गम्भीर स्वर में बोला, ''मां अगर तुम लोगों को निर्विचार सोचना या मानना बन्द करो तो परिवार में सभी का भला होगा। 'करना पड़ता है' या 'करना नहीं चाहिए' यह छोड़के तुम लोग कुछ भी जानना क्यों नहीं चाहती?''

मां ने कहा, ''चाह कर भी क्या होगा?'' बोल, ''होगा क्या? ज्ञान चक्षु खुलेंगे। विधि निषद्ध की कोई आवश्यकता ही नहीं अब तो समझ आ जायेगी।'' ''मां और भी उदासीन स्वर में बोली, सीख कर भी क्या होगा?''

मैं गुस्सा हो गया, तब तो कुछ भी नहीं कहना ही श्रेयस्कर होगा। इसके बाद कहना होगा खाने से क्या होगा। सोकर क्या मिलेगा।''

मां हँस पड़ी।

वह बोलीं, ''वह सब अगर ना करूं तो तुम लोगों के परिवार का बोझा कैसे ढ़ोऊंगी?''  

यही जीवन का लक्ष्य है?

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