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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

13

मैं और भी इस विषय की व्याख्या करना चाहता था पर पौली ने सुना ही नहीं। वह बोली-''वह जैव प्रेरणावश होता है। आहार, निद्रा की तरह, उनके लिए बच्चा बड़ा करना भी प्रकृति प्रदत्त ही है। उसे अपनी युक्ति का हथियार मत बनाओ। क्यों मैं क्या बेबी से प्यार नहीं करती? एक सुन्दर, गोल-सी प्यारी बच्ची जो मेरी अपनी है, उसको जितना प्यार करना चाहिए मैं उतना ही प्यार करती हूं। तुम्हारी तरह स्नेह भार से आक्रान्ति नहीं रह सकती।

पौली अपने कंधों को नचा कर जिस पर छ: इंच कपड़े से तैयार ब्लाउज की दो उंगली की साइज की बांहें भी थीं और छोटे बालों को लहरा कर मेरे ऊपर रूमाल से प्यार का थप्पड़ लगा कर चलती बनी।

पौली का यही गुण है-वह कभी भी परिस्थिति को बिगाड़ती नहीं थी। जब वह गुस्सा भी होती तब भी उसमें एक संयम रहता था। तभी तो उसके साथ में ज्यादा दिनों तक निभा सका। छोटे-छोटे वादानुवाद तर्क प्रदर्शन, फिर मत विरोध होते थे पर जैसे सब ठीक भी हो जाते थे। इसी तरह रात-दिन का पहिया अपनी लय से चलता रहता था। इन्हीं सबके बीच कब बेबी भी धीरे-धीरे बड़ी होती गई।

इसी समय काल में एक दिन कांचनगर से पिता का मृत्यु समाचार भी मिला। मैं ही एकमात्र पुत्र था, श्राद्धाधिकारी उसी हिसाब से मुझे बुलाया गया।

पिताजी नहीं हैं, यह मैं बार-बार रटता रहा और इसे कहते-कहते जैसे मैं इस खबर को अपने मन में बिठा रहा था। मन में विश्वास जगा रहा था-हालांकि मैं दूध पीता बच्चा ना था कि मृत्यु की खबर को अविश्वास्य मान बैठता। यह भी एक प्रकार का मेरा बचपना या खामखयालीपन कह सकते हैं।

पिता के मरने का मतलब था मां का विधवा होना-अब से जो मझली बूआ की तरह एक सफेद कपड़े का टुकड़ा लपेट कर बैठी रहेगी। सोचता जाता पर इससे ना तो मन में हताशा का उदय होता ना ही आंखों में आंसू के दो कतरे।

तब क्या मैं हृदयहीन या मेरी हृदय रूपी सम्पत्ति दिवालिया हो गई है। मुझे डर लगा। मुझे क्या सुख-दुख की तीव्रता की समझ नहीं। मैं क्या अनुभूतिशून्य बन गया।

मेरे पिता नहीं हैं। मैं इस बात का भी अफसोस नहीं करता कि आखिरी समय में उन्हें देख भी ना पाया और मां को कैसे विधवा वेश में देख सकूंगा? ज्यादा सुख की चाह रखने वाले का क्या यही परिणाम होता है?

मेरा एक चचेरा बहनोई खबर देने आया था जो यहां कहीं पास में रहता है।

उससे मैंने कहा-मैं तो अनाचारी हूं वंश का कलंक हूं। मैं कैसे श्राद्ध कर्म का दावेदार हो सकता हूं?

बहनोई हँसने लगा-पंजिका में जहां श्राद्धिकारी की क्रमानुसार तालिका रहती है वहां कहीं भी इस तथ्य की पुष्टि नहीं की गई है कि अनाचारी, चरित्रहीन पुत्र श्राद्ध नहीं कर सकता। हां, अगर वह धर्म का त्याग करे तभी इस अधिकार से वंचित किया जाता है। तुमने क्या हिन्दू धर्म का त्याग करके किसी दूसरे धर्म को ग्रहण किया है?

मैं जोर से अट्टहास कर उठा।

इसी पल पिता का मृत्यु समाचार सुना फिर जोर से हंस उठा-''दूसरा धर्म, पागल तो नहीं हुआ। असल में मैंने धर्म नामक विषय पर कभी भी सिर नहीं खपाया। हिन्दू धर्म को ना मैंने विसर्जित किया है ना ही कभी ज्यादा जोर से पालन किया। जन्मसूत्र से अगर वह धर्म मेरा है तो जरूर है, नहीं तो कब का अलग हो गया है। मैंने हिन्दू धर्म की उतनी भी परवाह नहीं की, कि मैं जोर गले से उसे त्याग करने की बात कह सकूं। ना है 'आमन्त्रण' या है 'त्याग'। बहनोई-उससे ही काम चलेगा। मैं भी कितना धर्म का झंडा फहराता फिरता हूं बेटे की बेटी शादी या वेटी का ब्याह या मां-बाप के श्राद्ध के समय धर्म की आवश्यकता पड़ती है। मुझे बताने को कहा गया था बता रहा हूं उस रात को गिने तो तीन दिन तो हो ही गये हैं, अगर जाये तो आज ही जाना चाहिए।

मतलब अगर जायें, कांचनगर जाये-

मैं आचार-आचरणहीन म्लेच्छ, जिसने कानूनी कार्यवाही से स्वयं को अतीन से अतनू बना डाला, उसी कांचनगर के विशुद्ध आचार वाले बोस परिवार में जाऊंगा? वहां मैं कैसे अपने को उस परिस्थिति में ले जाऊं जहां के लोग मुझे कैसी निगाह से देखेंगे या उनकी निगाहों में व्यंग्य, घृणा, धिक्कार और इन सबके साथ मेरे प्रति ईर्ष्या की भी दृष्टि रहेगी, क्योंकि मैंने काफी पैसा कमाया है।

इन दृष्टियों में मुझे कौन-सा ठीक लगेगा, शायद कोई भी नहीं। फिर मैं क्यों आगे बढ़कर थप्पड़ खाने जाऊं। शायद हमारे सनातनी पुरोहित यह पुण्यकर्म इस विचारहीन जो किसी खाद्य-अखाद्य का परहेज नहीं करता, पत्नी त्यागी, विवेक भ्रष्ट, लम्पट से नहीं करवाया जा सकता।

तब, तो वह थप्पड़ नहीं रहेगा चाबुक में परिवर्तित हो जायेगा।

मैंने कहा-नहीं जाऊंगा।

बहनोई स्वर में दुःख समेट कर बोले जाते तो अच्छा होता। आप अपनी मां के एकमात्र पुत्र हैं। मैं बोला मां का एकमात्र पुत्र काफी समय पूर्व मर चुका है। उसकी प्रेतात्मा को ले जाने का क्या फायदा?

विजय ने उसके जवाब में एक छिछोरेपन से भरी हँसी ही छोड़ी। और घूम-घूम कर चारों ओर देखने लगा। दादा आप काफी मजे में हैं, मकान तो जैसे महल लगता है, सजधज भी वैसी ही है, कहते हैं 'वानिज्यवर्सात लक्ष्मी' हम उस राइटर्स विल्डिंग के चेयर पर ही सारा समय घिसटते रह गये। अगर हिम्मत करके लग जाते। मैं मन-ही-मन हँसा। कोशिश से सब कुछ हासिल हो सकता है क्या, झूल कर क्या खड़े हो सकते हैं। विजय तो वहां से हिलना ही नहीं चाहता था। दीवार लगी तस्वीरों को देख रहा था।

मैं-विजय और कुछ कहना चाहते हो?

विजय चौंक कर बोला नहीं-नहीं कुछ नहीं प्रभा भाभी के बारे में आप कुछ जानते हैं?

प्रभा भाभी-जैसै मैं आसमान से गिरा।

फिर विरक्ति प्रकाश कर कहा-''उनकी क्या बात हो सकती है?''

''यानि हैं कहां-कुछ काम-धाम कर रही हैं या नहीं? मैं और भी क्रोधित हो गया-जब जिन्दा हैं तो इस पृथ्वी के किसी भाग में जरूर हैं। और काम खाना और सोना और कुछ काम वे जानती हैं या नहीं वह मैं नहीं जानता? लेकिन तुम काहे उनकी चिन्ता करते हो। तुम्हें क्या उन्होंने पैसे मांगने के लिए भेजा है या वह महीने-महीने पैसे लेने का दावा करना चाहती हैं?''

विजय भी थोड़ा हँस कर बोला-वाह क्यों? आपसे ही तो जानना चाहता था। वहां तो नहीं रहती। कब की झगडा करके मायके चली आई थी। अब सुना जाता है वहां भी नहीं है, किसी दूर के रिश्ते के मौसी के लड़के के यहां है-रहने दे, वह सब सुनी-सुनाई और बेकार की बातें हैं जो पुराने फटे कपड़े की तरह बिखर कर एक आधा टुकड़ा इधर आ जाता है तो पता चल जाता है। छोड़िये।

अब तक विजय का अस्थिर व्यवहार का अर्थ अब मैंने जाना, मेरे पूर्व पत्नी को चरित्र पतन का समाचार सुनाने की व्याकुलता। वह प्रभा की असामाजिक परिस्थिति से मुझे अवगत कराना चाहता था।

इन लोगों के प्रति में करुणामिश्रित परिहास का भाव ही वहन करता आया था, अब भी वही किया।

प्रभा के चरित्रहीन होने से मेरा कुछ आता-जाता नहीं। सभी को सुख प्राप्ति का पूर्ण अधिकार है। अगर वह चाहती तो अपने भरणपोषण का दावा कर सकती थी। पर उसने वैसा ना किया। मैं उसे पैसा देने के लिए बाध्य होता।

इसका मतलब था मुझसे वह किसी भी सम्बन्ध सूत्र में बंधे नहीं रहना चाहती। यह तो ठीक है। पर क्या सिर्फ प्रभा कौन किसी रिश्ते की डोर से बंधा रहना चाहता है?

मुझे अपने ही पिता की मृत्यु की खबर अपने किसी दूर के रिश्ते के बहनोई से सुननी पड़ी। कांचनगर से किसी ने मुझे याद नहीं किया। यहां तक मां ने भी नहीं। इसका मतलब था उन्होंने मेरा नाम अपने मन से मिटा डाला था।

फिर मैं किस सूत्र से नियम, विधि-विधान मानू-क्यों जूता खोलूं? मैं नहीं खोलता पर पैरों में जूते जैसे पैरों को काटते हैं, और टेबिल पर जब खाने बैठता हूं तो आंखों के सामने ना जाने पहले देखे गये दृश्य मंडराते रहते हैं। मिट्टी की हड़िया, लकड़ी का धूआ, माढ़ी वाला भात-सफेद थान की धोती और मुंडा सिर..."  

यह सब कौन है? कौन। पिताजी, ताया जी, चाचा? तब किसकी मौत हुई है? दादा जी की? मैं फिर कहां हूं? मैं क्या वहां नहीं हूं?

यही तो मुश्किल है मैं अपने असल वक्तव्य से फिर हट गया। मैं भावप्रवणता जाहिर कर रहा हूं। मुझे अपनी कथा भी तो एक के बाद एक सजाकर बतानी पड़ेगी? पहले क्या हो रहा था पौली के बारे में बता रहा था।

उस दिन पौली विजय के चले जाने के बाद कमरे में आई और नाक सिकोड़ कर बोली, ''वह कौन था यहां से जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। और कितना प्यार उमड़ा पड़ रहा था, दादा, दादा रट रहा था।''

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