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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

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इसके अलावा उसमें सर्वाधिक बोध था 'मात्रा' का, कितना अभिमान करने से मधुर परिवेश की सृष्टि होती है, और अगर अभिमान की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो तो वही कड़वा बन जाता है यह बोध उसे था। कितने आस 'आंसू' सहानुभूति के और कितने विरक्तिकर होते हैं। कितना अधिक या किस मात्रा में प्रेम-प्रदर्शन उद्दीपना की सृष्टि करता है और कब वह आतंक की वस्तु में परिणत हो जाता है, पौली इन सब विद्याओं में माहिर थी। तभी तो मैं पौली को पाने के लिए पागल हो रहा था।

हालांकि उस वक्त इतना विश्लेषण तो नहीं किया था-तब मैं यही सोचता था पौली को यह सारे गुण प्रकृति ने वरदान-स्वरूप दिये हैं। पौली में मुझे सुख का प्रकाश दिखाई बाद में दिया। जब पौली के साथ रहना शुरू किया तब उसे विश्लेषण करने का मुझे नशा-सा हो गया था।

पर एक बात मैं आज तक ना समझ पाया कि पौली क्या इसी अहंकारवश बदलती जा रही थी कि उसने एक इन्सान के जीवन में दैवी स्वरूप स्थान पा लिया है या उसके दोषों में ही मुझे गुण प्रतीत होते थे।

जब मैं पौली के साथ घूमता था तब वह आनन्द, उल्लास की प्रतिमूर्ति थी। वह किशोरी जैसी प्रतीत होती। जब उसके साथ गंगा के किनारे या शहर से बाहर गाड़ी पार्क करके घास पर बैठता तब वह स्वप्नमय सन्ध्या के आगोश में सिमटी रहस्यमयी भावुक नारी प्रतीत होती, जब उसके घर में जाता तब उसके अन्दर से स्नेहमयी रमणी बाहर आ जाती जो सेवा जतन से मन को हर लेती। जब बहुत लोग होते, उनके सामने वह स्मार्ट गर्ल, और जब निर्जन में हमें घनिष्ठ होने का अवसर मिलता, मेरे भीतर से वासना की अग्नि प्रज्वलित होती तो वह उसमें सामग्री डाल कर उसे और तेज कर देतीं तब वह बेपरवाह पूर्ण यौवना युवती थी।

तभी तो मैं उसे देखकर ही समझ गया इसी की मैं खोज में था अब तक।

हां, मैं बता रहा था स्टीमर में जब घूमने निकले थे तब मैंने उसे अतीत बताया।

कौतुक मिश्रित अवज्ञा से। पौली जिससे यह ना समझ बैठे दो-दो घटनाओं से मेरे मन पर बोझ है।

पौली ने ऐसा कुछ नहीं नहीं सोचा। जब सब बातें खत्म कर उसकी तरफ देखा और पूछा, तुम्हें बताना जरूरी था यह सब।

वह हँसी से लोटपोट हो गई।

वह बोली-इतने छोटे तो हो इतने सारे काण्ड हैं। मुझे तुम्हारी तीसरी बीवी का पद लेना होगा। हाय भगवान।

मैं भी नेत्रों में दुःख समेट कर बोला था, ''मैं जबरदस्ती तुम्हें किसी भी पद पर नहीं बिठाऊंगा। तुम चाहो तो तुम्हारे दोनों पखों से आकाश में उड़ना। जैसे अब उड़ती हो।

पौली ने मेरे ऊपर रूमाल से हमला कर और अजीब शक्ल बनाकर यही कहा-''शैतान लड़के। इच्छानुसार आकाश में विचरण का उपाय तुमने रखा है?''

मैं जड़ हो गया। मतलब?

पौली ने भौंहों पर बल डालकर झटका देकर कहा-''मानो अत्यन्त सरल है। तुम्हारे प्रेम-आवेग का परिणाम।

इससे तो मुझे डरना चाहिए था। पौली के पिता पाईन साहब ने मुझे अपनी लड़की से मिलने का अवसर दिया, मुझ पर विश्वास करके-और मैं!

उसके बदले मुझे अत्यन्त हर्ष का अहसास हुआ। कांचनगर से आने वाले दिन की पिछली रात्रि वाली घटना जब प्रभा ने मुझे भद्दा इंगित किया था। और मेरे मन में भी एक भय सन्देह ने जन्म ले लिया।

पौली की इस भंगिमा ने मुझे उस सन्देह से मुक्त कर दिया। अवैधानिक तो था पर मैं हर्षित हो उठा था, आवेग से उसका हाथ पकड़ कर कहा-सच। पौली ने मेरे शरीर को ठेल कर कहा-अहा इसमें इतने प्रसन्न होने की क्या आवश्यकता है-मैं तो परेशान-उस पल मैंने एक परिपक्व अभिनेता की भूमिका निभाई ''तुम अगर मेरे पूर्वजीवन के उस ग्लानिमय अध्याय को भूल सको। तुमको इसमें परेशान होने की क्या जरूरत है। कल ही तुम्हारे पिता को।''

पौली-नहीं जानती। जो मर्जी हो करो। हां, ज्यादा उत्साह में आकर पुरानी कहानियां मेरे पिता के सामने मत उगल डालना।

मैंने कहा-''वह क्या उचित होगा?''

पौली-''ठीक क्यों नहीं होगा? वह सब गड़बड़झाला सुनकर अगर पिता-तब मैं पौली के कहने पर उठता बैठता। उसकी बुद्धि पर पर्याप्त भरोसा था। तभी तो पौली के पिता के समक्ष गड़बड़ रहित निर्मल भाषा में उनकी कन्या को वरण करने का अधिकार मांगा।''

श्रीमान् पाइन ने अपने गाम्भीर्य के आवरण से थोड़ा निकल कर मुस्कान बिखेर कर कहा-शैतान-अन्दर ही अन्दर यह सब था। यह सब योजना बनाई जा रही थी। मैंने इसका जबाव प्रणाम करके दिया। लेकिन बाद में, ब्याह के बाद मेरे आंखों से एक भारी पर्दा हट गया, वह था मोह का पर्दा, क्योंकि पौली ने मुझे जिसे आशंका का भय दिखाया था, वह बेकार था। जब मैंने विस्मित होकर उससे पूछा तो उसने हँसी से उस बात को टाल दिया-''तुम हमेशा ही आतंकग्रस्त रहते हो तभी तो तुम्हें लाठी को सर्प कह कर डरा दिया।''

मैं जो इतना खुशी से फूला ना समा रहा था, वह खुशी पिचक कर गुब्बारे की तरह हो गई जो पहले तो फुला दिया जाता है बाद में हवा निकलने पर पिचक जाता है।

मैं इसी आशा में दिन गिन रहा था कब और गौरवमय परिचय पत्र को गौरवमय तरीके से कांचनगर ले जाकर सबको विस्मित कर दूंगा।

वहां प्रभा नामक लड़की ने दृष्टता से मेरा अपमान किया था, उसका क्रूर अभियोग एवं अपमान मैं धूलिसात कर उसका उन्नत सिर नीचा करके दिखाऊंगा।

जब पौली ने हँसते-हँसते कहा 'रज्जू को सर्प भ्रम' कर दिया तब मुझे यह इच्छा हुई कि इस नववधु के गाल पर एक चांटा रसीद कर दूं।

बाद में मुझे पता चला था रज्जू द्वारा 'सर्पभ्रम' नहीं बल्कि मिथ्या आतंक का जाल बुन कर मुझको रज्जूबद्ध कर डाला था।

इसका कारण था पौली के पिता जो बड़े व्यवसायी थे। उन्होंने पौली को अपने तरुण पार्टनर से मिलने-जुलने का अवसर देकर उसे यह भी कड़ा निर्देश दे दिया था कि वह मुझे रज्जूबद्ध कर ले।

मैं जब अपना अतीत बता रहा था तब उसे यह डर लगा कि शायद मैं उससे दूर जाना चाह रहा हूं।

तभी तो जल्दी से मुझे बांधा था तो यह बालू का कच्चा बांध तब भी उस समय तो काम कर गया था।

उधर श्रीमान पाइन भी क्या अपने भावी दामाद के दो बार शादी का वृत्तान्त सुनकर सिहर उठते-नहीं-

क्योंकि उन्होंने मेरा साक्षात्कार करने के बाद ही जब मुझे जामाता रूप में ग्रहण करने का निश्चय किया तभी एक दूत गोपनीय रूप से कांचनगर भी भेज दिया था।

वह मेरा नाड़ी लक्षण का पूरा ब्यौरा ही ले आया था।

और जब जान गये कि मैं परिवार का त्याग दिया गया पुत्र हूं तब वे पूरी तरह से निश्चिन्त हो गये थे।

यह सब मैं ब्याह के पश्चात् ही जान पाया और जानकर मेरा मोहभंग भी शुरू हो गया। आप लोगों के मन में यह जिज्ञासा हो सकती है कि पौली तो एकमात्र सन्तान थी, पाइन साहब के पास दौलत की कमी ना थी, फिर मेरे जैसे ''थर्ड हैन्ड'' के साथ अपनी कीमती बेटी को बांधने के लिए क्यों व्यस्तता दिखा रहे थे?

यह भी गूढ़ रहस्य था।

वह गूढ़ रहस्य था, बेटी से ज्यादा वे अपने व्यवसाय को महत्व देते थे-उस व्यवसाय या कारोबार को एक योग्य पात्र के हाथ में देने की योजना में थे-वह योग पात्र उन्हें मेरे रूप में मिल गया।

लेकिन दोनों को एक ही पात्र को ना सौंपते तो विरोध या टकराव होता। तभी तो अपनी बेटी को उस पात्र के सामने ला कर खड़ा कर दिया।

इसके अलावा मिस पाइन का कोई 'अतीत' नहीं है-कौन कह सकता है?

शादी के एक बरस के बाद जब पौली को सच में बच्चा हुआ तब नर्सिंग होम के डॉक्टर ने क्यों कहा था-इतना क्यों घबड़ा रही हैं? पहला बच्चा तो नहीं है। पहली बार में...।

पौली जोर से हँसी-''क्या पागल की तरह बात करते हैं। मेरी शादी को तो अभी ग्यारह महीने ही हुए हैं।''

डॉक्टर ने भौंहें सिकोड़ कर एक बार मुझे और एक बार पौली को ऊपर से नीच देखकर 'शौरी' कहा।

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