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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15403
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

28

तू ऐसा लड़का है!

अब सागर के अपमान की बारी है। सागर उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है, ''चलता हूं।"

लो, यह झमेला !

लतू कहती है, “हुजूर को गुस्सा आ गया? अच्छा बाबा, अच्छा, तुम बड़े ही साहसी पुरुष हो। अब बैठ जाओ।”

फिर हाथ पकड़ लेती है।

सागर क्या ऐसी हालत में भी जाने का साहस कर सकता है?

"हर रोज तू साहब दादू के साथ कहां जाता है?"

"कितनी ही जगह।”

"हर बस्ती में उनका रंग-ढंग देखकर सभी हंसते हैं। कहते हैं, अधपगला है।"

सागर उत्तेजित हो जाता है। कहता है, “उन्हें कोई समझ नहीं सका है।"

"यही तो मुश्किल है। कोई आदमी यदि लीक के बाहर जाता है। तो उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अच्छा सागर, तू मुझे समझ पाता है?"

इस आकस्मिक आक्रमण से सागर सकते में आ जाता है।

सागर सिर्फ इतना ही कहता है, "वाह, क्यों नहीं समझ सकूंगा?

"क्या जानू ! बुआ तो कहती है तुझे कोई समझ नहीं पाएगा, लती ! जो लोग अपने घर ले जाएंगे, वे फौरन वापस पहुंचा जाएंगे।”

"वापस पहुंचा जाएंगे? ससुराल से?”

सागर और भी उत्तेजित हो जाता है।

लतू हंसने लगती है।

कहती है, "सभी तो तेरे-जैसे नहीं हैं? अपने भाई की ही मिसाल ले। किसी को समझने की कोशिश करेगा? डांटकर हुलिया बिगाड़ देगा।"

सागर अपने भाई के दुर्व्यवहार से शर्मिन्दा हो उठता है।

“लतू, मां काली के सामने तुम क्या प्रार्थना करतीं?”

“अब कहकर क्या होगा? वह उम्मीद अब पूरी नहीं होगी।”

सागर का सिर चकराने लगता है वह प्रार्थना क्या है?

सागर चुप्पी ओढ़ लेता है।

कुछ देर बाद लतू एकाएक बोल पड़ती है, “चकोतरा खाएगा, सागर?”

"चकोतरा? धत्त !"

“धत्त क्यों रे? बहुत ही मीठा है। अभी तुरन्त तुझे खिला सकती हूं।"

“मुझे जरूरत नहीं है। अच्छा लतू, आदमी आदमी के साथ बुरा बर्ताव कर कौन-सा सुख हासिल करता है?"

“यहीं तो मजे की बात है। दुनिया के तमाम रहस्यों में से सबसे बड़ा रहस्य। जबकि अच्छा बर्ताव करने से पैसा खरचना नहीं पड़ता है।"

सागर जरा रुककर कहता है, "मिसाल के तौर पर नानी की ही बात कहता हूं। अरुण नाना इस घर के कितने काम कर देते हैं, कितने कष्ट उठाते हैं, मगर नानी उनकी कितनी उपेक्षा करती हैं ! इसके क्या मानी हो सकते हैं, बताओ तो?"  

लतू एक लमहे तक सागर के चेहरे पर आंखें टिकाने के बाद हल्की-सी हंसी हंसते हुए कहती हैं, “यह बात तेरी समझ में नहीं आएगी।”

सागर गुस्से भरी आवाज में कहता है, "समझेंगा क्यों नहीं? समझता जरूर हूं। चूंकि वे गरीब हैं, इसीलिए।”

"फिर तो सारा कुछ समझ गया।” लतू कहती हैं, "रहने दो बाबा, तुझे होशियार बनाना नहीं चाहती। तू इतना अबोध है कि क्या कहूं !"

"ठीक है, तुम बहुत अक्लमंद हो न। कोई आदमी चाहे जितना ही भला क्यों न हो, वह गरीब और काले-कुत्सित की उपेक्षा करेगा हो। साहब दादू के साथ नानी ऐसा करें तो जानू।...कहूंगा तो तुम्हें यकीन नहीं होगा, परसों दोपहर की धूप में तपते हुए वे हाट से थोड़ासा बढ़िया अरवा चावल ले आए, ऐसा लगा जैसे नानी मारने पर उतारू हो गई हों-फिर...फिर तुम बासमती चावल ले आए? उस दिन कह दिया था न कि फिर किसी दिन नहीं लाना।

“अरुण नाना ने समझाने की कोशिश की, 'कीमत भी कोई खास ज्यादा नहीं है, लेकिन खाने में बड़ा ही उम्दा है।' पर यह कौन देखे, सुने ही कौन? ...दूसरी ओर कितनी ही चीजों में ढेर सारा पैसा फेंक देती हैं नानी! लेकिन उस चावल में जरा ज्यादा खर्च हुआ है इसी वजह से। कहूंगा तो तुम्हें यकीन नहीं होगा लतू, वह चावल लिया ही नहीं। बोलीं फौरन उठाकर ले जाओ। सोच सकती हो, लतू? उसी धूप और तपिश में तत्क्षण चावल की बोरियां लेकर अरुण नाना को चला जाना पड़ा।''

“मुसकराकर कहना चाहा था, 'फौरन चला जाऊं? जरा बैठने की इच्छा हो रही है।'...नानी बोलीं, 'नहीं-नहीं, आदमी का स्वभाव ही होता है कि बैठने का मौका मिले तो लेटना चाहता है।'...मां घर में नहीं थी, पटाई बुओं के घर घूमने गई थी। मुझे बड़ा ही बुरा लग रहा था। मां रहती तो अवश्य ही बिठाती, पानी-बानी पीने को देती।”

लतू सुन रही थी और मुसकरा भी रही थी।

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