नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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गगन के मकान की खिड़की के नीचे से होकर जाने के दौरान गगन की बुआ स्वगत-भाषण करती हैं, “पटेश्वरी गुरु-सेवा कर वापस आ रही हैं !"
और गगन के बाप ने मन-ही-मन सोचा, “पटाई दी ने एक छोटीमोटी जमींदारी हथिया ली है। बिन-दा के द्वारा दिए गए खाने के खर्चे से संभवतः पुंटू-जटाई की रसोई का खर्च चल जाता है। ऐसा न हो तो सरदी-गरमी-बरसात में इस तरह आराम से गृहस्थी चल नहीं सकती है।”
उसके दरवाजे के करीब पहुंचाकर टॉर्च जलाते हुए लौट आते हैं। विनयेन्द्र। तुरन्त घर के अन्दर नहीं घुसे।
घर के सामने के बरामदे के दोनों ओर सीमेन्ट की बनी कुसियों में से एक पर बैठ जाते हैं।
कहीं से बेला और जूही के फूलों की खुशबू तैरती हुई आ रही है। कृष्ण पक्ष की रात के आकाश के तारे झिलमिला रहे हैं। बड़ा ही अच्छा लग रहा है।
अच्छा लगने के दौरान वे जैसे अपने आप में डूब गए। सोच के गहरे में पैठ गए।
इस विश्व में कुछ पाने, न पाने, हार-जीत, लाभ-हानि–सब कुछ के परे शांति के एक सागर में आश्रय मिला हो जैसे।
“गलती की है", यह बात कभी नहीं सोचते विनयेन्द्रनाथ।
जब उच्च पद पर आसीन थे, पत्नी की प्रबल इच्छा और पद की। मर्यादा में ताल-मेल बनाए रखने के लिए जीवन-यात्रा में आडम्बर और विलास की प्राचुर्य था, उस समय का जीवन क्या विनयेन्द्र को अपना जीवन था?
उस जीवन में क्या विनयेन्द्र किसी दिन इस तरह की एक निस्तब्ध प्रकृति के आमने-सामने प्रकृति के एक हिस्से की तरह ही स्तब्ध बैठ सके हैं? अपने सोच के गहरे में पैठ सके हैं? या चिन्ताविहीन हो सुख-दुख, अच्छे-बुरे के अनुभूतिहीन एक निस्तरंग समुद्र में डुबकियां लगा सके हैं?
सुरमा को वे कभी अपनी अभिरुचि के सांचे में ढाल नहीं सके।...इसके लिए विनयेन्द्र कभी सुरमा को दोषी नहीं ठहराते। सभी को अपनी अभिरुचि के अनुसार रहने का अधिकार है, विनयेन्द्र इस सच्चाई पर विश्वास करते हैं।
सुरमा को यदि इस आडंबरहीन जीवन में कोई आनन्द नहीं मिलता हैं, सुरमा यदि घर, गाड़ी, दास-दासी, अलंकार, अहंकार को ही सफल जीवन का चरम आदर्श समझती है तो विनयेन्द्र को कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि सुरमा का अभियोग विनयेन्द्र के मन में कभी अपराध-बोध नहीं जगाता है।
सुरमा ने कोई कम लड़ाई नहीं की थी। तीक्ष्ण वाक्य-बाणों से बेधा है, जंगली 'रामनाथ' कहकर व्यंग्य कसा है, पागल कहा है, बुद्धिभ्रष्ट कहा है, लेकिन विनयेन्द्र टस-से-मस नहीं हुए हैं। उन्होंने बारबार दुहराया है, “अब सभ्यता का मुखौटा पहुने नहीं रहूंगा।”
ढलती बेला में बालू के घर पर बैठ एक किशोर को विनयेन्द्र यही सब बात बता रहे थे।
जिसे 'सभ्यता' कहकर गौरव का अनुभव किया जाता है, वह है। 'सभ्यता का मुखौटा'। आदिवासियों में सभ्यता का जो बोध है वह तुम लोगों के तथाकथित सभ्य व्यक्तियों में नहीं है। हालांकि वे ही मुखौटाधारी सभ्यगण असभ्यता का चरम प्रदर्शन कर रहे हैं। ‘सभ्यता' नामक उसी कलंकित मुखौटे ने आदमी के सब कुछ को ढंक लिया है। आदमी को लोभ दिन-दिन बढ़ता ही जा रही है और लोभ ही तमाम भ्रष्टाचार को जन्म देता है।
वह किशोर मुग्ध विह्वल दृष्टि फैलाए उस दृढ़ प्रत्यय का चेहरा देख रहा था। सागर का पिता भी नीति और दुर्नीति के सम्बन्ध में बातें करता है, “आदमी धीरे-धीरे विनाश की ओर कदम बढ़ा रहा है, यह बात उसका बाप हमेशा चिल्ला-चिल्लाकर कहता है। मगर बाबूजी के चेहरे पर न तो इस व्यथा की कोई निशानी रहती है और न ही प्रत्यय की।
उसी विश्वास और प्रत्यय की छाप से दमकता हुआ मुख तब भी कहे जा रहा था, "इस सभ्यता का जब तक विनाश नहीं होगा, समाज की कोई उन्नति नहीं होगी। आदमी धीरे-धीरे अपने-आपको लोभ की दलदल में डुबोकर उसकी गहराई में जाने की साधना करेगा। हो सकता है, तुम सोचते होगे, मैं तो एक बालक हूं, फिर तुमसे यह सब क्यों कह रहा हूँ? सोचकर देखा है, तुम्हारे जैसे लड़कों में ही इस सम्बन्ध में चेतना आना आवश्यक है। लोभ का कोई अन्त नहीं है, मांगों की कोई सीमा-रेखा नहीं है। कितनी दूर तक जाओगे तुम? कितनी दूर तक? रुपये का पहाड़ खड़ा कर लेने पर भी, 'अब जरूरत नहीं है, यह कहकर आदमी छोड़ नहीं देगा। आवश्यकताओं को बढ़ाते रहेगा। वह आवश्यकता होगी दीवार में गाड़कर रखने की आवश्यकता।"
धूप छिटककर सुनहरा प्रकाश ले चारों तरफ फैल गया है, गरमियों की नदी बहुत नीचे से बह रही है, उसकी कल-कल ध्वनि नीरद है। काफी फासले पर तीन-चार-पांच जनों का दल बनाए आदिवासी मजदूर काम करके लौट रहे हैं।
कई मजदूरिने भी एक-दूसरे की कमर थामे गीत गाते हुए जा रही हैं। वे लोग भी जैसे मुक्त प्रकृति के अंश हों।
विनयेन्द्र मानो अपने आपसे ही बातें कर रहे हैं, “सबसे अधिक सामर्थ्यवान ही सबसे अधिक असहाय हैं ट्रैजेडी यही है। वे कहां असहाय हैं, जानते हो? लोभ के पास। यही वजह है कि अपने हाथों से गढ़े कानूनी यंत्र के कमजोर स्क्रू की ही तलाश किए चल रहे हैंयंत्र को ढीला कर सुविधा हासिल करने के ख्याल से।...अपने हाथ में बंधे नियम के घेरे को चुहिया की तरह छिपकर बैठे-बैठे काट रहे हैं, उससे बाहर निकलने के खयाल से। मगर इतनी नीचता, क्षुद्रता, गन्दगी और निर्लज्जता के बदले में तुम्हें क्या मिल रहा है?”
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