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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15403
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

11

विनू दा ने युवक की नाईं गर्वपूर्ण अदा के साथ दोनों बांहों को थपथपाते हुए कहा, "क्यों? देखने से सेहत क्या बिगड़ी हुई लगती है? क्यों, चिनु, तू ही बता।"

चिनु बोली, "रहने दो, मंगलवार की भरी दुपहरिया में अपने बारे में कुछ नहीं बोलना चाहिए।"

"यह देख पटाई, चिनु भी तेरी ही तरह बातें कर रही है।"

फिर हंसी का वहीं रेला।

पटेश्वरी बिना किनारी की सफेद साड़ी का आंचल हिला-हिन्नाकर शरीर में हवा लगाते हुए कहती हैं,'' कहती क्या यों ही हूँ? जानते नहीं, कहावत है-अहंकार मत करो जगत में भाई, नारायण का असली नाम हैं दर्पहारी।"

“लो, अब तेरे प्रवचन की शुरुआत हो गई।"

चिनु कहती है, "जाओ, तुम जाकर स्नान कर लो। मैं बल्कि इस बीच पटाई बुआ से गपशप करूं।”

"कर।" बिनू दा कहते हैं, "आज उसके भाग्य से तू है, वरना हर रोज भात लेकर आने पर बैठे-बैठे झपकियां लेती रहती है। उसे देखते ही मैं भय से भागे-भागे नहाने चला जाता हूं।''

"अहो, क्या कहने हैं ! मेरे भय से तुम चींटी के सुराख में घुस जाते हो।" पटेश्वरी खुशी की अदा के साथ कहती हैं, "सुन रही है न चिनु, बिनू दा की बातें। दो वक्त थोड़ा-सा खाकर मेरो उद्धार करते हैं, बस इतना ही। अनियम पराकाष्ठा तक पहुंच जाती है।"

साहब दादू हंसते हुए स्नान करने चले जाते हैं।....दोनों महिलाएं गपशप में मशगूल हो जातीं हैं।

सागर सहसा अपने आपको अवान्तर जैसा महसूस करता है। वहां से चले जाने की इच्छा होती है उसे। इस पटेश्वरी नामक महिला ने एक बार ताककर भी नहीं देखा कि यहां कोई और भी आदमी है।

"मैं चलता हूं।"

सागर ने कहा।

मां बोली, "इस धूप में तू अकेले जाएगा? मैं भी तो जाऊंगी।"

“तुम जाओगी तो धूप कम हो जाएगी?"

"भले ही न हो। तुझे क्या यहां कांटे चुभ रहे हैं?”

इतनी देर के बाद पटाई ने सागर के बारे में एक बात कही, जरूर ही चुभ रहे होंगे। इस उम्र के लड़कों को औरताना गपशप के बीच बैठना पड़े तो कांटे ही बेधने लगते हैं। उसका पैर ठीक हो गया?''

सागर को फिर गुस्सा आ गया।

उसके पैर में मोच आने की बात पूरे मुल्क में प्रचारित कर दी गई है। ठीक हो गया है, इसका सबूत पेश करने के लिए सागर ‘मैं जा रहा हूं' कहकर दनदनाता हुआ बाहर निकल गया।

गांठ के पास कसक जैसा महसूस हो रहा है। होने दो।

सागर को पता नहीं था कि लतिको का घर किस तरफ है। सागर अपने नाना के घर की तरफ बढ़ रहा था, बगल से लतिका की आवाज सुनाई पड़ी, "अरे, तू इस धूप में कहां जा रहा है?"

देखा, एक इकमंजिले मकान के बरामदे के ऊपर वाले कमरे की खिड़की के पास लतू की मुखड़ा है।

फिर एक झमेला।

सागर बोला, “घर जा रहा हूं।"

"गया कही था?"

“साहब दादू के घर..."

सागर चलना शुरू कर देता है। धूप सचमुच ही तीखी है।

चलने के दौरान सागर को पता चल जाता है कि लतिका सरकार घर से निकल उसके पीछे-पीछे आ रही है।

कितनी तेज-तर्रार जोंक हैं यह लड़की!

"ऐ, इतना तेज क्यों चल रहा है?"

लतिका उसके समीप ने पहुंच पाने के कारण पुकारती है, दिख नहीं रही कि मैं आ रही हूं।"

सागर ने तय किया था, वह भी उसे 'तू' कहेगा, लेकिन चट से ऐसा करना संभव नहीं हो सका।

"बाप रे, तू कितना अभद्र है? सोचती थी, कलकत्ता के लोग बड़े ही भद्र-सभ्य होते हैं। तू तो माटा है।"

सागर इस तरह की बातें पसन्द नहीं करता, फिर भी लतिका कहने से बाज नहीं आएगी। यही तो कल सागर की नानी के पास जाकर बड़-बड़ करती रही, उसमें से ज्यादातर सागर और प्रवाल के नाम का ब्यौरा था।

"समझी चटर्जी दिदा, आपके ये दोनों नाती आदमी को आदमी समझते ही नहीं।"

एकमात्र इसी व्यक्ति को 'आप' कहते हुए लतू की जबान से सुना सागर ने।

नानी के व्यक्तित्व में एक बेमिसाल खासियत है।

नानी से सभी अदब के साथ पेश आते हैं।

नानी से उम्रदार लोग भी।

यहां तक कि सास भी, जो कभी मृण्मयी पर भरपूर रोब-दाब गालिब कर सकती थीं, वे भी अगर कुछ बोलती हैं तो पीठ पीछे ही बोलती हैं।

घर के अन्दर बड़बुड़ाती रहती हैं और यदि मृण्मयी देवी एकाएक पूछ बैठती हैं, "मां, कुछ कहना चाहती हैं?

तो वे झट से कहती हैं, "नहीं बिटिया, तुमसे कुछ नहीं कहना है। अपनी किस्मत का रोना रो रही हैं। भगवान जिसकी एक सन्तान को छीन लेते हैं, उसकी अब..."

"यह तो बहुत पहले की बात है, मां। इतने दिनों में भगवान भूल भी चुके होंगे।"

भूल चुके होंगे !

सास गुस्से से उबल दबे स्वर में चीखती हैं, "सब बात में मुझसे टक्कर!"

तो भी सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती।

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