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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15403
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

प्यार का चेहरा

1

लोहे की दो सलाखों के बीच की फाँक में चेहरा कसकर दबाए रहने के कारण दो गोलाकार शिकनें पड़ गई हैं और इसके फलस्वरूप दाग उभरता जा रहा है, तो भी सागर अपने चेहरे को कसकर दबाए हुए है। देखकर लगता है, यदि उसके वश की बात होती तो वह उस सँकरे स्थान से अपना माथा बाहर निकाल झुककर उस दृश्य को देखता।  

हालाँकि वह देखने लायक कोई दृश्य नहीं है।

एक अधबूढ़ा आदमी बगीचे में घूम-घूमकर शायद खाद छिड़क रहा है।

यह फूलों का बगीचा नहीं, साग-सब्जी का बगीचा है। भला गरमियों के इस मौसम में फल ही क्या सकता है? न तो गोभी, न झकमक करता टमाटर, न गदराया हुआ बैंगन-निहायत भिडी, झींगा, वरसेम ही फल सकते हैं। फिर भी सेवा-जतन में कोई ढिलाई नहीं बरती जा रही है। यह भी भला कोई देखने लायक चीज़ है?

सागर की आँखें देखने से अलबत्ता यह नहीं लगता कि उसे बगीचे के सम्बन्ध में कोई कुतूहल है, कुतूहल है तो बस उस आदमी के सम्बन्ध में ही।

उस आदमी का पहनावा है एक बदरंग खाकी हाफपँट और बिना बांह वाली बनियान, मौजेविहीन पैरों में भारी गमबूट और सिर पर इस अंचल का पेटेंट के पत्ते का हैट।

सागर ने छुटपन में इस किस्म का हैट देखा है, माँ जब मेले के मौके पर मायके आती तो सागर के लिए खरीदकर ले जाती। शायद प्रवाल के लिए भी उसके बचपन में ले जाती थी। यहाँ के मेले की ताड़ के पत्तों की चीजें मशहूर हैं—बैग, छोटी टोकरी, पिटारी और इस किस्म की टोपियाँ।  

मेले के बाद कुछ दिनों तक बच्चों-बूढ़ों सभी के सिर पर इस तरह के हैट देखने को मिलते हैं।

सागर ने यह सब अपनी माँ से सुना है।

इसके पहले सागर कभी अपनी माँ के देस के मकान में नहीं आया था।

सागर के दादा ने एक बार सागर की मां से कहा था, "बच्चे को न ले जाना ही बेहतर रहेगा। देहात है, मच्छरों की भरमार है, कहीं रोग-व्याधि का शिकार न हो जाए। सुना है, बहू, तुम्हारे पिता के देस के मच्छर एक साबुत आदमी को घर से घसीटते हुए मैदान में ले जाकर फैक दे सकते हैं।”

बस, उस समय जो माँ के मन में अभिमान जगा तो कभी लड़के को अपने साथ ले मायके नहीं गईं। उन दिनों सागर का भाई प्रवाल शायद बच्चा था। सागर का जन्म नहीं हुआ था।

सिर्फ दादा को ही क्यों गुनाहगार ठहराया जाए? सागर का बाप भी कब यहीं आया है !

सुनने को मिला है, सागर का बाप भी गांव के नाम पर बेहद घबराता था। किसी भी हालत में जाने को राजी नहीं होता-इस उसके साथ माँ को भेज देता। माँ के गोत्र का एक बड़ा भाई भोला कलकत्ता की मेस में रहता था। वह मेले के अवसर पर घर जाने से कभी चुकता नहीं था।। घर जाने के एक दिन पहले शाम के वक्त भोला मामा सागर के घर आ जाता, साला ही आदर-खातिर के साथ खाना खिलाता, रात में वह खर्राटे भरकर सोता और सुबह की गाड़ी से माँ के साथ रवाना हो जाता। हाँ, सुबह की गाड़ी में जाना ही सुविधाजनक रहता। गाड़ी खुलने का वक्त यदि छह बजे होती तो भोला मामा रात के तीन बजे ही उठकर तैयार। रह-रहकर आवाज लगाता, "अरी चिनु, तू तैयार हो गई?”

भोला मामा को सागर फूटी आँखों भी देख नहीं पाता।

प्रवाल भोला मामा के ताश का मैजिक देख मोहित होता, भोला मामा के गप्प जमाने के हुनर से आकर्षित होता, लेकिन सागर पर उसके व्यक्तित्व या कला का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे देखकर सागर को लगता, यह आदमी छद्म वेशधारी दैत्य है, सागर की माँ को बहलाकर उसका हरण कर लेने के मौके की तलाश में है और इसीलिए इस तरहू मजलिसी शख्स का स्वांग रच रहा है।

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