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हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15402
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

विश्वकर्मा

श्री विश्वकर्मा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। वे समस्त शिल्प शास्त्र का आविष्कार करने वाले देवता हैं। जैसे दानवों के शिल्पियों में सर्वश्रेष्ठ शिल्पी मय दानव का नाम उल्लेखनीय है, वैसे ही देवताओं के महान शिल्पकार विश्वकर्मा हैं। उन्हें 'देवताओं का इंजीनियर' भी कहते हैं। विश्वकर्मा के चार हाथ हैं। वे अपने हाथों में पुस्तक, जलपात्र, पाश और औजार रखते हैं। उनके सिर पर दिव्य मुकुट, भुजाओं पर बाजूबंद और गले में मणिमंडित स्वर्णहार शोभित हैं।

विश्वकर्मा ऐसे शिल्पकार हैं जिनमें सोचने की अद्भुत क्षमता है। विश्वकर्मा ने सत्यूग, त्रेतायुग और कलियुग में बहुत से दिव्य लोकों, नगरों और भवनों का निर्माण किया। सत्युग में देवताओं के लिए स्वर्गलोक तथा देवराज इंद्र की दिव्य सभा और दिव्य महल का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था। भगवान शिव के निवास के लिए हिमालय पर दिव्य कैलास और कैलास के समीप यक्षराज कुबेर की अलकापुरी का निर्माण भी उन्होंने ही किया।

'गरुड़ पुराण' के अनुसार मृत्यु के देवता यमराज की चार सौ कोस में बनी यमपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था। वह यमपुरी इतनी मजबूत बनी हुई है कि उसे सुर और असुर भी नहीं तोड़ सकते। वह बहुत ऊंचे परकोटे से घिरी हुई है। उसमें सौ कोस लंबा-चौड़ा यमराज के मंत्री चित्रगुप्त का भवन है। जो अद्भुत पच्चीकारी से सुशोभित है। यमपुरी के बीच में यमराज का दिव्य भवन है जो सैकड़ों योजन लंबा-चौड़ा और पचास योजन ऊंचा है। वह विभिन्न प्रकार के रत्नों से बना हुआ है। उसमें वैदूर्य मणियों से जड़ित हजारों खंभे हैं। सोने के तोरणों से सुशोभित भवन सूर्य के तेज के समान चमकता है। उस भवन में सौ योजन लंबी-चौड़ी, वातानुकूलित एवं मन को आनंद देने वाली यमराज की दिव्य सभा है। वहां बैठकर यमराज समस्त जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा चित्रगुप्त द्वारा बताने पर उनके दंड का निर्णय सुनाते हैं।

‘वाल्मीकि रामायण के अनुसार दक्षिण समुद्र के किनारे त्रिकूट पर्वत पर देवराज इंद्र की अमरावती के समान अद्भुत अभेद्य लंकापुरी का निर्माण इन्ही शिल्पकार विश्वकर्मा ने किया था। जिस लंका में राक्षसराज रावण राज्य करता था, वह सोने के बने विशाल परकोटे से घिरी हुई थी। उसके चारों ओर खार खुदी थीं। उसमें विभिन्न मणियों से जड़े हुए सोने के भवन सुशोभित थे और वे विद्युत दीपों के प्रकाश से प्रकाशित थे।

'श्रीमद् भागवत' के अनुसार द्वापर युग में समुद्र के भीतर 48 कोस लंबी-चौड़ी दिव्य द्वारकापुरी का निर्माण भी विश्वकर्मा ने किया था। लोक, पुरी और भवनों के अतिरिक्त उन्होंने दिव्य विमानों तथा दिव्य शस्त्रों का निर्माण भी किया था। कुबेर का दिव्य पुष्पक विमान और ऋषिवर दधीचि की हड़ियों से इंद्र के लिए वज्र विश्वकर्मा ने ही बनाया था। महर्षि अगस्त्य ने भगवान श्रीराम को जो धनुष-बाण दिए थे, वे विश्वकर्मा द्वारा ही निर्मित थे। उन महान शिल्पकार विश्वकर्मा की पूजा प्रति वर्ष बड़ी धूमधाम और श्रद्धा-भक्ति से की जाती है। उस दिन उद्योगों में काम बंद रखकर कर्मचारी, कलाकार, शिल्पी और जुलाहे आदि विश्वकर्मा की पूजा करते हैं।

 

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