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हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15402
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

हंस


एक बार की बात है। लोक पितामह चतुर्मुख ब्रह्मा अपनी दिव्य सभा में बैठे थे, तभी उनके मानस-पुत्र सनकादि चारों कुमार दिगंबर-वेश में वहां पहुंच गए। उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा के चरणों में प्रणाम किया। फिर ब्रह्मा के आदेश से चारों कुमार पृथक-पृथक आसनों पर बैठ गए। सभा के अन्य सदस्य तेजस्वी सनकादि कुमारों के सम्मान में सर्वथा मौन एवं शांत हो गए थे।

कुमारों ने अत्यंत विनयपूर्वक जिज्ञासा प्रकट की, “परम पूज्य पिताश्री ! चित्त गुणों अर्थात विषयों में प्रविष्ट रहता है और गुण भी चित्त की एक-एक वृत्ति में समाए रहते हैं। इनका परस्पर आकर्षण है, स्थायी संबंध है। फिर मोक्ष चाहने वाला अपना चित्त विषयों से कैसे हटा सकता है? उसका चित्त गुणहीन अर्थात निर्विषय कैसे हो सकता है? क्योंकि यदि मनुष्य-जीवन प्राप्त करके मोक्ष की सिद्धि नहीं की गई तो संपूर्ण जीवन ही व्यर्थ हो जाएगा।''

ब्रह्मा जी देवशिरोमणि, स्वयंभू एवं प्राणियों के जन्मदाता होने पर भी प्रश्न में संदेह का बीज कहां है, इसका पता नहीं लगा सके। वे प्रश्न का मूल कारण नहीं समझ सके। वे आदिपुरुष परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करने लगे। तभी सबके सम्मुख एक अत्यंत सुंदर, परमोज्ज्वल एवं परम तेजस्वी महाहंस रूप में श्री भगवान प्रकट हो गए। इन हंस के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर ब्रह्मा, सनकादि तथा अन्य सभी सभासद उठकर खड़े हो गए। सबने हंस रूपी श्री भगवान के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। इसके अनंतर पाद्य-आदि से सविधि पूजा कर उन्हें पवित्र और सुंदर आसन पर बिठाया।

"आप कौन हैं?'' उक्त महामहिम परम तेजस्वी हंस का परिचय प्राप्त करने के लिए कुमारों ने उनसे पूछा।

हंस ने उत्तर दिया, "इसका निर्णय तो आप लोग ही कर सकते हैं। यदि इस पंच भौतिक शरीर को आप 'आप' कहते हैं तो शरीर की दृष्टि से पृथ्वी, वायु, जल, तेज और आकाश से निर्मित रस, रक्त, मेद, मज्जा, अस्थि और शुक्र वाला शरीर सबका है। अतएव देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पंचभूतात्मक होने के कारण अभिन्न हैं और आत्मा के संबंध में आप लोगों का यह प्रश्न ही नहीं बनता। वह तो सदा सर्वत्र समान रूप में व्याप्त है।''

फिर कुछ रुककर भगवान हंस ने कहा, "अब आप लोग ही सोचें और निर्णय करें कि चित्त में गुण है या गुणों में चित्त समाया हुआ है। स्वप्न का द्रष्टा, देखने की क्रिया और दृश्य - क्या सब पृथक होते हैं? मन, वाणी, दृष्टि तथा अन्य इंद्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूं। मुझसे भिन्न कुछ नहीं है। यह सिद्धांत आप लोग तत्व विचार के द्वारा सरलता से समझ लीजिए। यह चित्त चिंतन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं - यह बात सत्य है। तथापि विषय और चित्त - ये दोनों मेरे स्वरूपभूत जीव के देह हैं-उपाधि हैं। अर्थात आत्मा का चित्त और विषय के साथ किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं है।"

परम प्रभु हंस के उत्तर से सनकादि मुनियों का संदेह निवारण हो गया। उन्होंने श्रद्धा-भक्ति से भगवान हंस की पूजा-स्तुति की। तदनंतर ब्रह्मा के सम्मुख महाहंसरूपधारी श्री भगवान अदृश्य होकर अपने धाम चले गए।

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