नई पुस्तकें >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
नर-नारायण
स्वयं भगवान वासुदेव ने सृष्टि के आरंभ में धर्म की सहधर्मिणी मूर्ति से दो रूपों में अवतार धारण किया। वे अपने मस्तक पर जटामंडल धारण किए हुए थे। उनके हाथों में हंस, चरणों में चक्र एवं वक्षस्थल में श्रीवत्स के चिह्न सुशोभित थे। उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएं, मेघ के समान गंभीर स्वर, सुंदर मुख, चौड़ा ललाट, बांकी भौंहें, सुंदर ठोड़ी और मनोहर नासिका थी। उनका संपूर्ण वेश तपस्वियों के समान था। वे अत्यंत तेजस्वी तथा रूप-रंग और स्वभाव में एक से थे। उन वरदाता तपस्वियों के नाम थे-'नर और नारायण।'
अवतार ग्रहण करते ही अविनाशी नर-नारायण बदरिकाश्रम में चले गए। वहां वे गंधमादन पर्वत पर एक विशाल वटवृक्ष के नीचे तपस्या करने लगे। भगवान श्रीहरि के अंशावतार उन नर-नारायण नामक दोनों ऋषियों ने वहां एक सहस्र वर्ष तक कठोर तपस्या की। उनके प्रचंड तप से देवराज इंद्र संशक हो तुरंत गंधमादन पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने तपोभूमि आश्रम में परम तेजस्वी भगवान नर-नारायण को तप निरत देखा।
सूर्य की भांति प्रकाश विकीर्ण करते हुए तपोधन नर-नारायण के समीप पहुंचकर शचीपति ने कहा, “तुम दोनों की तपश्चर्या से संतुष्ट होकर मैं तुम्हें वर देने के लिए आया हूं। तुम अपना अभीष्ट बताओ। मैं उसे पूर्ण करूंगा।"
इस प्रकार देवाधिप इंद्र के सम्मुख खड़े होकर बार-बार आग्रह करने पर भी नर-नारायण ने कोई उत्तर नहीं दिया। उनका चित्त सर्वथा शांत एवं अविचलित रहा। तब इंद्र ने उन्हें भयभीत करने के लिए माया का प्रयोग किया। भयानक झंझावत, प्रलयंकर वृष्टि एवं अग्निवर्षा प्रारंभ हो गई। भेड़िये और सिंह गरजने लगे, किंतु नर-नारायण सर्वथा शांत थे। उनका चित्त विचलित नहीं हुआ। अनेक प्रकार की माया का प्रयोग किए जाने पर भी जब तपस्वियों के सिरमौर नर-नारायण तप से विरत नहीं हुए, तब इंद्र निराश होकर लौट गए। उन्होंने रंभा, तिलोत्तमा, पुष्पगंधा, सुकेशी तथा कांचनमालिनी आदि अप्सराओं और वसंत के साथ कामदेव को प्रभु नर नारायण को वशीभूत करने के लिए भेजा।
उक्त श्रेष्ठ पर्वत गंधमादन पर वसंत के पहुंचते ही आम, बकुल, तिलक, पलाश, साखू, तांड, तमाल और महुआ आदि सभी वृक्ष पुष्पों से सुशोभित हो गए। कोयले कूकने लगीं। सुगंधित पवन मंद गति से बहने लगी। इसके साथ ही रति सहित पुष्पधंवा भी वहां पहुंचे। रंभा और तिलोत्तमा आदि संगीत-कला में प्रवीण अप्सराओं ने स्वर-ताल में गायन प्रारंभ कर दिया।
मधुर संगीत, कोयलों का कलरव और भ्रमरों की गुंजार से नर-नारायण की समाधि टूट गई। उन्होंने इसे इंद्र की कुटिलता समझकर उन लोगों से कहा, “कामदेव, मलय पर्वत और देवांगनाओ! तुम लोग आनंदपूर्वक ठहरो! तुम सभी स्वर्ग से यहां आए हो, इसलिए हमारे अतिथि हो। हम तुम्हारा अद्भुत प्रकार से अतिथि-सत्कार करने के लिए तैयार हैं।"
भगवान नर-नारायण के शांत वचन सुनकर कामदेव के मन में निर्भयता आई। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, 'प्रभो! आप माया से परे और निर्विकार हैं। बड़े-बड़े आत्माराम और धीर पुरुष सदा आपके चरण-कमलों में प्रणाम करते रहते हैं। प्रभो! क्रोध आत्मानाशक है लेकिन बड़े-बड़े तपस्वी उसके वश होकर अपनी कठिन तपस्या खो बैठते हैं। किंतु आपके चरणों का आश्रय लेने वाला सदैव निरापद जीवन व्यतीत करता है।"
कामदेव एवं वसंत आदि की स्तुति सुनकर सर्वसमर्थ भगवान ने वस्त्र और अलंकारों से अलंकृत, अद्भुत रूप-लावण्य से संपन्न सहस्रों स्त्रियां प्रकट करके दिखाईं, जो प्रभु की सेवा कर रही थीं। जब इंद्र के अनुचरों ने समुद्रनयना लक्ष्मी के समान अनुपम रूप-लावण्य की सहस्रों देवियों को अत्यंत श्रद्धापूर्वक प्रभु की सेवा--पूजा करते देखा तो लज्जा से उनका सिर झुक गया। वे श्रीहत होकर उनके शरीर से निकलने वाली दिव्य सुगंध से मोहित हो गए।
भक्तप्राण नारायण ने मुस्कराते हुए कहा, “तुम लोग इनमें से किसी एक स्त्री को, जो तुम्हारे अनुरूप हो, ले लो। वह तुम्हारे स्वर्ग की शोभा बढ़ाएगी।''
"जैसी आज्ञा !'' कहकर उन सबने प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और उनके द्वारा प्रकट की हुई स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ सुंदरी उर्वशी को लेकर वे स्वर्गलोक चले गए। स्वर्ग में उन्होंने देवराज इंद्र को प्रणाम कर देवदेवेश नर-नारायण की महिमा का गान किया तो सुराधिप चकित, विस्मित और भयभीत हो गए।
पुराण-पुरुष नर-नारायण स्वयं सर्वसमर्थ होकर भी सृष्टि में तपश्चर्या का आदर्श स्थापित करने के लिए निरंतर कठोर तप करते रहते हैं। काम, क्रोध और मोहादि शत्रु तप के महान विघ्न हैं। अहंकार और क्रोध से तप का क्षय होता है-यह नर-नारायण प्रभु ने अपने जीवन से सिखाया है।
बात तब की है, जब अपने पिता हिरण्यकशिपु के शरीरांत के बाद भक्त प्रह्लाद भगवान नृसिंह के आदेश से पाताल में रहने लगे। वहीं उनकी राजधानी थी। वे अत्यंत धर्मपूर्वक शासन करते थे। दानवराज प्रहलाद देवता और ब्राह्मणों के सच्चे भक्त थे। तपस्या करना, धर्म का प्रचार करना और तीर्थाटन करनायही उस समय के ब्राह्मणों का कार्य था। सभी वर्गों के लोग अपने-अपने स्वधर्म का पालन तत्परतापूर्वक करते थे।
एक दिन तपस्वी भृगुनंदन च्यवन जी पवित्र नर्मदा के तट पर व्याहृतीश्वर तीर्थ में स्नान करने गए। मार्ग में रेवा नदी मिली। महर्षि च्यवन उसके तट पर उतरने लगे कि एक भयानक विषधर ने उन्हें पकड़ लिया। विषधर के प्रयास से ही वे पाताल में पहुंच गए। विवश होकर ऋषि मन ही मन कमल-लोचन श्रीहरि का ध्यान करने लगे। ध्यान करते ही उनका सर्प-विष दूर हो गया। तब तपस्वी समझकर सर्प ने भी भयवश उन्हें छोड़ दिया तथा शापभय से नागकन्याएं च्यवन ऋषि की पूजा करने लगीं।
इसके अनंतर महर्षि च्यवन दानवों और नागों की पुरी में जाकर वहां का दृश्य देखने लगे। जब दानवराज प्रहलाद की उन पर दृष्टि पड़ी तो उन्होंने च्यवन ऋषि की विधिवत पूजा की और पूछा, "हे भगवन! आप यहां कैसे पधारे ? सुरेश्वर इंद्र हम लोगों से शत्रुता रखते हैं। कहीं उन्होंने तो मेरा भेद लेने के लिए आपको नहीं भेजा है? कृपापूर्वक सत्य बताइए।"
महर्षि च्यवन ने उत्तर दिया, "राजन ! मैं भृगु का धर्मात्मा पुत्र च्यवन हूं। मैं इंद्र का दौत्य कर्म क्यों करने लगा? आप श्री विष्णु के भक्त हैं, मुझे भी वैसा ही समझिए।'' फिर उन्होंने अपने पातालपुरी में प्रविष्ट होने की सारी घटना उन्हें बता दी। ऋषि के उत्तर से संतुष्ट होकर प्रहलाद ने उनसे पृथ्वी के पवित्र तीर्थों के संबंध में पूछा। महर्षि च्यवन के मुंह से पृथ्वी के तीर्थों का वर्णन सुनकर दानवेंद्र प्रह्लाद ने नैमिषारण्य जाने का निश्चय कर लिया।
सहस्रों महाबली दैत्यों का समूह दानवराज प्रहलाद के साथ नैमिषारण्य पहुंचा। वहां सबसे स्नान किया। भक्तराज प्रहलाद नैमिषारण्य तीर्थ के कार्यक्रम पूरे कर रहे थे कि उन्हें कुछ दूरी पर विशाल वटवृक्ष दिखाई दिया। वहां उन्होंने विभिन्न प्रकार के सुतीक्ष्ण शर देखे।'इस परम पवित्र तीर्थ में धनुर्बाणधारी व्यक्ति का क्या काम'-दानवेश्वर प्रहलाद मन में विचार कर ही रहे थे कि उन्हें कृष्ण-मृगचर्म धारण किए भगवान नर-नारायण के दर्शन हुए। उनकी अत्यंत सुंदर विशाल जटाएं थीं। उनके सामने शारंग और आजगव नामक दो चमकीले धनुष तथा बाणपूरित तरकस रखे थे।
ध्यानमग्न धर्मनंदन नर-नारायण को देख क्रोध से नेत्र लाल करके भक्त प्रहलाद ने कहा, "तुम लोगों ने यह क्या पाखंड रच रखा है? उत्कट तप और धनुर्बाणधारण-ऐसा आश्चर्य तो मैंने कहीं नहीं देखा। इस प्रकार के आडंबर से धर्म की क्षति होती है। तुम्हें तो धर्माचरण ही उचित है।''
नर-नारायण बोले, "दानवेंद्र! तुम हमारी तपस्या की व्यर्थ चिंता मत करो। युद्ध और तप-दोनों में हमारी गति है। ब्राह्मणों की व्यर्थ में चर्चा करना उचित नहीं है। तुम अपना मार्ग पकड़ो।'
दैत्येंद्र प्रहलाद ने कहा, "तपस्वियो! व्यर्थ में अहंकार करना उचित नहीं है। मैं दैत्यों का राजा हूं। धर्म की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। मेरे रहते इस पावन क्षेत्र में तुम्हारा यह आचरण उचित नहीं है। यदि तुम्हारे पास ऐसी कोई शक्ति है तो रणभूमि में उसका प्रदर्शन करो।"
भगवान नर ने तुरंत उत्तर दिया, “तुम्हारी इस इच्छा की पूर्ति हो जाएगी। युद्ध के लिए तुम मेरे सामने आ जाओ।''
प्रह्लाद ने धनुष उठा लिया और नर से भयानक संग्राम होने लगा। बाद में नारायण ने भी युद्ध में भाग लिया। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर भयानक अस्त्रों का प्रहार करते रहे। उनका युद्ध इंद्र सहित अनेक देवता आकाश में विमान पर बैठे देख रहे थे। विश्ववंद्य नर-नारायण तथा दानव कुलभूषण प्रहलाद का युद्ध एक हजार वर्ष तक चलता रहा, लेकिन कोई पक्ष विचलित नहीं हुआ।
अंतत: लक्ष्मी सहित शंख-गदा-चक्र-पद्म धारण किए, नवजलधर श्याम श्री विष्णु प्रहलाद के आश्रम पर पधारे। भगवान के चरणों में श्रद्धा-भक्तिपूर्ण प्रणाम और उनकी स्तुति करके भक्त प्रहलाद ने भगवान रमापति से कहा, "हे प्रभो! तपस्वियों से दीर्घकाल तक युद्ध करते रहने पर भी मेरी विजय न होने का हेतु समझ में नहीं आता। मैं अत्यंत चकित हूं।"
भगवान विष्णु ने कहा, "इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। तपस्वी नर और नारायण मेरे ही अंशावतार हैं। तुम इन्हें किसी भी प्रकार से पराजित नहीं कर सकते। अतएव मुझमें भक्ति रखते हुए तुम पाताल चले जाओ। इन परमादर्श महातपस्वियों का विरोध उचित नहीं है।"
प्रभु का आदेश पाकर दैत्येंद्र प्रह्लाद असुर-यूथों के साथ अपनी राजधानी के लिए प्रस्थित हुए और नर-नारायण अपनी तपस्या में लग गए। भगवान नरनारायण का अवतार कल्पपर्यंत तपश्चर्या के लिए हुआ है। वे बदरिकाश्रम में आज भी तप कर रहे हैं। अधिकारी पुरुष उनके दर्शन प्राप्त कर सकते हैं।
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