नई पुस्तकें >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
बुद्ध
कलियुग के आते ही उपासना और ज्ञानहीन कर्मकांड का प्रचार बढ़ गया था। लोग वैदिक यज्ञ और ईश्वर के नाम से लाखों पशुओं की बलि तथा नरबलि देने लगे थे। यज्ञ-बलि की आड़ में उत्तरोत्तर बढ़ती जीव-हिंसा को रोकने के लिए भगवान विष्णु ने ‘बुद्धावतार धारण किया। उन्होंने वेद तथा ईश्वरीय सत्ता का विरोध करके अहिंसा धर्म का प्रचार किया।
पुराणों में जिस बुद्धावतार का वर्णन है, वे महाराज शुद्धोधन के पुत्र गौतम बुद्ध ही थे। लेकिन यह विवादास्पद विषय है क्योंकि पुराणों में बुद्ध के पिता को ‘अजिन' कहा गया है। परंतु यह निर्विवाद है कि बुद्धावतार कीकर देश में गया के पास ही हुआ था। बुद्ध के अवतार की प्रचलित कथा इस प्रकार है-
कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन की पत्नी मायादेवी ने एक दिव्य बालक को जन्म दिया किंतु वे कुछ ही दिनों के बाद परलोकवासी हो गईं। उस बच्चे का पालन विमाता गौतमी ने किया और बच्चे का नाम सिद्धार्थ रखा। ज्योतिषियों ने बताया था कि यह बच्चा वीतरागी महापुरुष या महान सम्राट होगा। ऐसे में महाराज शुद्धोधन को यह चिंता कचोटने लगी कि कहीं सिद्धार्थ विरक्त होकर गृह त्याग न कर दे, इसलिए उन्होंने सिद्धार्थ को आमोद प्रमोद के माहौल में रखा और शीघ्र ही एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से उनका विवाह कर दिया। यशोधरा से एक पुत्र हुआ जिसका नाम था-राहुल।
सिद्धार्थ को एकांत में रहना अच्छा लगता था। उनका मन महल से ऊब गया था, अत: एक रात वे अपनी सोती हुई पत्नी और पुत्र को छोड़कर घर से निकल गए। वे विद्वान आचार्यों के आश्रम में रहे किंतु वहां उनकी जिज्ञासा शांत न हुई। उन्होंने कठोर तप करने का निश्चय किया और गया मं् बोधिवृक्ष के नीचे आसन लगाया। यहीं पर उन्हें बोध प्राप्त हुआ। वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए। ज्ञान प्राप्त करने के बाद जब बुद्ध कपिलवस्तु लौटे तो उनकी पत्नी यशोधरा ने उनसे दीक्षा ली। उनका पुत्र राहुल भी सद्धर्म में दीक्षित हुआ।
बुद्ध ने जिस तत्वज्ञान का उपदेश दिया, वह इस प्रकार है-संसार क्षणिक और दुख रूप है। क्षणिक पदार्थों की तृष्णा दुखों का कारण है। तृष्णा के नाश से दुखों का नाश होता है। हृदय में अहंकार और राग-द्वेष की सर्वथा निवृत्ति होने पर निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। 45 वर्ष तक धर्म का प्रचार करते हुए भगवान बुद्ध ने 80 वर्ष की अवस्था में गोरखपुर से कुछ दूर कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया। उन्होंने सभी मनुष्यों को पशुता का मार्ग त्याग कर मानवता का मार्ग अपनाने का जो उपदेश दिया था, उसे आत्मसात करके अनेक नरेश, राजकमार और राजकुमारियां राज-सुख छोड़कर भिक्षु-भिक्षुणी बन गए। उन्होंने श्रीलंका सुमात्रा, चीन, जापान आदि देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
वेदरक्षक भगवान विष्णु ने स्वयं अवतरित होकर वेद और ईश्वरीय-सत्ता का निषेध कर नास्तिकता का प्रचार किया। इसके मूल में वैज्ञानिक तथ्य यह था कि जब वेद और ईश्वर के नाम से बलि की आड़ में जीव-हिंसा हो रही थी तो वेद और ईश्वर का खंडन करने के सिवाय कोई अन्य चारा नहीं था। जैसे रोगी के लिए विष औषधि का काम करता है किंतु स्वस्थ होने पर विष की जरूरत नहीं रहती, वैसे ही जीव-हिंसा रुकने पर नास्तिकता का रहना लोकहित में नहीं था, इसलिए भगवान शंकर ने शंकराचार्य के रूप में अवतरित होकर बौद्ध धर्म का खंडन करके सनातन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की।
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