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यात्रा की मस्ती

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :50
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 1217
आईएसबीएन :1234567890

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मस्तराम को पता चलता है कि यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।


अंत में मैंने अपना बायाँ हाथ जो कोहनी से मुझे टिकाए हुए था उसे हटाया और उसके पीठ के पीछे ले गया और फिर दायें हाथ से उसकी अंगिया की कड़ी ढूँढ़ने का प्रयास करने लगा। मैंने पीठ पर ऊपर-नीचे कम-से-कम 5-6 बार तो यह प्रयास किया ही होगा, लेकिन जब तब भी असफल रहा, तब समझ में आया कि अंगिया तो कुर्ते के नीचे थे। वहाँ तक पहुँचने के लिए पहले कुर्ते को हटाना होगा। थक हारकर मैं अपने बायें हाथ की कोहनी पर फिर से अपने को टिका कर पहले की तरह उसके कुर्ते के अंदर पेट की त्वचा का अनुभव करने लगा। इस बार नाभि से ऊपर तो मैंने अनुभव किये ही, बल्कि उंगलियाँ नाभि के नीचे जहाँ तक कमर में उसकी जीन्स आ रही थी, वहाँ भी घूमने लगीं।

मेरी हथेली और उंगलियाँ नाभि और कमर के नीचे जीन्स के बेल्ट के आस-पास घूम रही थीं। मजे की बात थी कि जीन्स भी शरीर से बिलकुल चिपकी हुई थी। यहाँ तक कि मुझे यहाँ भी अपने हथेली को जीन्स के ऊपर फिराना पड़ा। मैंने अपनी हथेली को उसके पेट से बिलकुल समानान्तर किया और धीरे से जीन्स के अंदर जगह बनाने का प्रयास किया तो वह कुनमुनाई। मैंने तुरंत अपना हाथ वहाँ से हटा लिया। शायद वह इससे आगे नहीं जाना चाहती थी। थोड़ी देर तक तो मैं हथेली उसके पेट पर फिराता रहा, फिर आगे दाल न गलती देखकर उकता गया और मैंने अपनी हथेली कुर्ते के अंदर से निकाल ली और कुर्ते के ऊपर से रखकर कुछ देर के लिए निश्चल हो गया।

वह वास्तविकता में क्या चाहती है, यह मैं अब तक नहीं समझ पा रहा था। शायद वह खुद ही किसी असमंजस में थी, पहले निमन्त्रण दिया, लेकिन बाद में रोकने लगी।  मेरी हालत एक बार फिर पहले जैसी हो गई, मैं तब भी समझ नहीं पा रहा था, कि वह ऐसा क्यों कर रही थी, अब भी नहीं समझ पा रहा था।  वह देखने में अच्छी खासी सुन्दर थी, पर मेरा मन उस पर मोहित हो सके, इसका अवसर ही ठीक से नहीं आया था। इसलिए ऐसा भी कोई कारण नहीं था कि मैं उसके साथ किसी प्रकार की कोई जोर-जबरदस्ती करूँ। वैसे भी इस तरह के सार्वजनिक स्थान पर यह असंभव ही था। एक ही दो मिनटों में मेरी सारी उत्तेजना हवा हो गई। मुझे समझ में आना बंद हो गया था कि मैं आगे क्या करूँ। बल्कि मैं तो यह भी सोचने लग गया था कि, अब मुझे अपनी बर्थ पर वापस चले जाना चाहिए।

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