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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १५

देश, काल, पात्र और दान आदि का विचार

ऋषियों ने कहा- समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूतजी! अब आप क्रमश: देश, काल आदि का वर्णन करें।

सूतजी बोले- महर्षियो! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देनेवाला होता है अर्थात् अपने घर में किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सममात्रा में देनेवाले होते हैं। गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दसगुना फल देता है। जलाशय का तट उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दसगुना फल देनेवाला होता है। देवालय को उससे भी दस गुने महत्त्व का स्थान जानना चाहिये। देवालय से भी दसगुना महत्त्व रखता है तीर्थभूमि का तट। उससे दसगुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा। उससे दसगुना उत्कृष्ट है तीर्थनदी का तट और उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ। गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा- इन सात नदियों को सप्तगंगा कहा गया है। समुद्र के तटका स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र माना गया है और पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्रतट से भी दसगुना पावन है। सबसे अधिक महत्व का वह स्थान जानना चाहिये, जहाँ मन लग जाय।

यहाँ तक देश का वर्णन हुआ, अब काल का तारतम्य बताया जाता है-

सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्ण फल देनेवाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। त्रेतायुग में उसका तीन चौथाई फल मिलता है। द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयी है। कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिये और आधा कलियुग बीतने पर उस चौथाई फल में से भी एक चतुर्थांश कम हो जाता है। शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देनेवाला होता है।

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