गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन, भगवान् शिव के द्वारा सातों वारों का निर्माण तथा उनमें देवाराधन से विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति का कथन
ऋषियों ने कहा- प्रभो! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्ति का हमारे समक्ष क्रमश: वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले- महर्षियो! गृहस्थ पुरुष अग्नि में सायंकाल और प्रातःकाल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता है उसी को अग्नियज्ञ कहते हैं। जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधा का आधान ही अग्नियह है। वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें। ब्राह्मणो! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करनेवाले द्विजों का जबतक विवाह न हो जाय और वे औपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तबतक उनके लिये अग्नि में समिधा की आहुति, वत आदिका पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है ( यही उनके लिये अग्नियज्ञ है)। द्विजो! जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपने आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया है ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि वे विहित समय पर हितकर, परिमित और पवित्र अन्न का भोजन कर लें। ब्राह्मणो! सायंकाल अग्नि के लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करनेवाली होती है, ऐसा जानना चाहिये और प्रातःकाल सूर्यदेव को दी हुई आहुति आयु की वृद्धि करनेवाली होती है यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। दिन में अग्निदेव सूर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। अत: प्रातःकाल सूर्य को दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ के ही अन्तर्गत है। इस प्रकार यह अग्नियज्ञ का वर्णन किया गया।
इन्द्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में जो आहुति दी जाती है? उसे देवयज्ञ समझना चाहिये। स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये। लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूडाकरण आदि संस्कार-निमित्तक हवन-कर्म हैं उन्हें भी देवयज्ञ के ही अन्तर्गत जानना चाहिये। अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनो। द्विज को चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिये निरन्तर ब्रह्मयज्ञ करे। वेदों का जो नित्य अध्ययन या स्वाध्याय होता है उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया है प्रात: नित्यकर्म के अनन्तर सायंकाल तक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है। उसके बाद रात में इसका विधान नहीं है।
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