गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
7 पाठकों को प्रिय 100 पाठक हैं |
भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
सत्ययुग आदि में तप को ही प्रशस्त कहा गया है, किंतु कलियुग में द्रव्यसाध्य धर्म (दान आदि) अच्छा माना गया है। सत्ययुग में ध्यान से, त्रेता में तपस्या से और द्वापर में यज्ञ करने से ज्ञान की सिद्धि होती है; परंतु कलियुग में प्रतिमा (भगवद्विग्रह) की पूजा से ज्ञानलाभ होता है। अधर्म हिंसा (दुःख) रूप है और धर्म सुखरूप है। अधर्म से मनुष्य दुःख पाता है और धर्म से वह सुख एवं अभ्युदय का भागी होता है। दुराचार से दुःख प्राप्त होता है और सदाचार से सुख। अत: भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये धर्म का उपार्जन करना चाहिये। जिसके घर में कम-से-कम चार मनुष्य हैं, ऐसे कुटुम्बी ब्राह्मण को जो सौ वर्ष के लिये जीविका (जीवननिर्वाह की सामग्री) देता है, उसके लिये वह दान ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला होता है। एक सहस्र चान्द्रायण- व्रत का अनुष्ठान ब्रह्मलोक दायक माना गया है। जो क्षत्रिय एक सहस्र कुटुम्ब को जीविका और आवास देता है, उसका वह कर्म इन्द्रलोक की प्राप्ति करानेवाला होता है। दस हजार कुटुम्बों को दिया हुआ आश्रय- दान ब्रह्मलोक प्रदान करता है। दाता पुरुष जिस देवता को सामने रखकर दान करता है अर्थात् वह दान के द्वारा जिस देवता को प्रसन्न करना चाहता है उसी का लोक उसे प्राप्त होता है - यह बात वेदवेत्ता पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। धनहीन पुरुष सदा तपस्या का उपार्जन करे; क्योंकि तपस्या और तीर्थसेवन से अक्षय सुख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है।
अब मैं न्यायत: धन के उपार्जन की विधि बता रहा हूँ। ब्राह्मण को चाहिये कि वह सदा सावधान रहकर विशुद्ध प्रतिग्रह (दान- ग्रहण) तथा याजन (यज्ञ कराने) आदि से धन का अर्जन करे। वह इसके लिये कहीं दीनता न दिखाये और न अत्यन्त क्लेशदायक कर्म ही करे। क्षत्रिय बाहुबल से धन का उपार्जन करे और वैश्य कृषि एवं गोरक्षा से। न्यायोपार्जित धन का दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है। ज्ञानसिद्धि- द्वारा सब पुरुषों को गुरुकृपा-मोक्षसिद्धि सुलभ होती है। मोक्ष से स्वरूप की सिद्धि (ब्रह्मरूप से स्थिति) प्राप्त होती है, जिससे मुक्त पुरुष परमानन्द का अनुभव करता है।
|