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गीता प्रेस, गोरखपुर >>
शिवपुराण
शिवपुराण
प्रकाशक :
गीताप्रेस गोरखपुर |
प्रकाशित वर्ष : 2006 |
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 1190
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आईएसबीएन :81-293-0099-0 |
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
सूतजी कहते हैं- शौनक! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बुरु मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने भाग्य की सराहना की। तत्पश्चात् उस पिशाच की सती-साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमानपर बैठकर नारद के प्रिय मित्र तुम्बुरु वेगपूर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये, जहाँ वह पिशाच रहता था। वहाँ उन्होंने उस पिशाच को देखा। उसका शरीर विशाल था। ठोढ़ी बहुत बड़ी थी। वह कभी हँसता, कभी रोता और कभी उछलता था। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। भगवान् शिव की उत्तम कीर्ति का गान करनेवाले महाबली तुम्बुरु ने उस अत्यन्त भयंकर पिशाच को पाशों द्वारा बाँध लिया। तदनन्तर तुम्बुरु ने शिवपुराण की कथा बाँचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मण्डप आदि की रचना की। इतने में ही सम्पूर्ण लोकों में बड़े वेग से यह प्रचार हो गया कि देवी पार्वती की आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उदेश्य से शिवपुराण की उत्तम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरू विन्ध्यपर्वत पर गये हैं। फिर तो उस कथा को सुनने के लोभ से बहुत-से देवर्षि भी शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचे। आदरपूर्वक शिवपुराण सुनने के लिये आये हुए लोगों का उस पर्वतपर बड़ा अद्भुत और कल्याणकारी समाज जुट गया। फिर तुम्बुरु ने उस पिशाच को पाशों से बाँधकर आसन पर बिठाया और हाथ में वीणा लेकर गौरी-पति की कथा का गान आरम्भ किया। पहली अर्थात् विद्येश्वर संहिता से लेकर सातवीं वायुसंहिता तक माहात्म्य सहित शिवपुराण की कथा का उन्होंने स्पष्ट वर्णन किया। सातों संहिताओं सहित शिवपुराण का आदरपूर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पूर्णत: कृतार्थ हो गये। उस परम पुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापों को धोकर उस पैशाचिक शरीर को त्याग दिया। फिर तो शीघ्र ही उसका रूप दिव्य हो गया। अंगकान्ति गौरवर्ण की हो गयी। शरीरपर श्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार के पुरुषोचित आभूषण उसके अंगों को उद्धासित करने लगे। वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखररूप हो गया। इस प्रकार दिव्य देहधारी होकर श्रीमान् बिन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वयं भी पार्वतीवल्लभ भगवान् शिव का गुणगान करने लगा। उसकी स्त्री को इस प्रकार दिव्य रूप से सुशोभित देख वे सभी देवर्षि बड़े विस्मित हुए। उनका चित्त परमानन्द से परिपूर्ण हो गया। भगवान् महेश्वरका वह अद्भुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम कृतार्थ हो प्रेमपूर्वक श्रीशिव का यशोगान करते हुए अपने-अपने धाम को चले-गये। दिव्यरूपधारी श्रीमान् बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपूर्वक आकाश में स्थित हो बड़ी शोभा पाने लगा।
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गुणों का गान करता हुआ वहअपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शीघ्र ही शिवधाम में जा पहुँचा। वहाँ भगवान् महेश्वर तथा पार्वतीदेवी ने प्रसन्नतापूर्वक बिन्दुग का बड़ा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया। उसकी पत्नी चंचुत्ना पार्वतीजी- की सखी हो गयी। उस घनीभूत ज्योति:- स्वरूप परमानन्दमय सनातनधाम में अविचल निवास पाकर वे दोनों दम्पति परम सुखी हो गये।
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