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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय २१-२२

 

पार्थिवपूजा की महिमा, शिवनैवेद्यभक्षण के विषय में निर्णय तथा बिल्व का माहात्म्य


(तदनन्तर ऋषियों के पूछने पर किस कामना की पूर्ति के लिये कितने पार्थिवलिगों की पूजा करनी चाहिये, इस विषय का वर्णन करके)

सूतजी बोले- महर्षियो! पार्थिवलिंगों की पूजा कोटि-कोटि यज्ञों का फल देनेवाली है। कलियुग में लोगों के लिये शिवलिंग-पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखायी देता है वैसा दूसरा कोई साधन नहीं है - यह समस्त शास्त्रों का निश्चित सिद्धान्त है। शिवलिंग भोग और मोक्ष देनेवाला है। लिंग तीन प्रकार के कहे गये हैं- उत्तम, मध्यम और अधम। जो चार अंगुल ऊँचा और देखने में सुन्दर हो तथा वेदी से युक्त हो, उस शिवलिंग को शास्त्रज्ञ महर्षियोंने 'उत्तम' कहा है। उससे आधा 'मध्यम' और उससे आधा 'अधम' माना गया है। इस तरह तीन प्रकार  शिवलिंग कहे गये हैं, जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा विलोम संकर - कोई भी क्यों न हो, वह अपने अधिकार के अनुसार वैदिक अथवा तान्त्रिक मंत्र से सदा आदरपूर्वक शिवलिंग की पूजा करे। ब्राह्मणो! महर्षियो! अधिक कहने से क्या लाभ? शिवलिंग का पूजन करने में स्त्रियों का तथा अन्य सब लोगों का भी अधिकार है।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा प्रतिलोमजः।
पूजयेत् सततं लिङ्गं तत्तन्मन्त्रेण सादरम्।।

किं बहूक्तेन मुनयः स्त्रीणामपि तथान्यतः।
अधिकारोऽस्ति सर्वेषां शिवलिङ्गार्चने द्विजाः।।

(शि० पु० वि० २१। ३१-४०)


द्विजों के लिये वैदिक पद्धति से ही शिवलिंग की पूजा करना श्रेष्ठ है; परंतु अन्य लोगों के लिये वैदिक मार्ग से पूजा करने की सम्मति नहीं है। वेदज्ञ द्विजों को वैदिक मार्ग से ही पूजन करना चाहिये, अन्य मार्ग से नहीं - यह भगवान् शिव का कथन है। दधीचि और गौतम आदि के शाप से जिनका चित्त दग्ध हो गया है उन द्विजों की वैदिक कर्म में श्रद्धा नहीं होती। जो मनुष्य वेदों तथा स्मृतियों में कहे हुए सत्कर्मों की अवहेलना करके दूसरे कर्म को करने लगता है उसका मनोरथ कभी सफल नहीं होता।

यो वैदिकमनावृत्य कर्म स्मार्तमथापि वा।
अन्यत् समाचरेन्मर्त्यो न संकल्पफलं लभेत्।।

(शि० पु० वि० २१। ४४)

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