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पढिए सत्य और न्याय की खोज करने वाले सुकरात जैसे महामानव की प्रेरक संक्षिप्त जीवनी जिसने अपने जीवन में एक भी शब्द नहीं लिखा- शब्द संख्या 12 हजार...
इसके विपरीत अनाक्सीमांद्रोस ने किसी भौतिक तत्व को प्रकृति का मूल मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने ‘आरखी’ की कल्पना अनंत या असीम के रूप में की, जिसका न कोई आदि है न अंत। (यह अवधारणा उपनिषदों के सबसे अधिक समीप है। जिस असीम या अनंत से विश्वों की उत्पत्ति मानी गई है उस परमतत्व को ‘ब्रह्मन्’ या ‘आत्मन्’ की संज्ञा दी गई है। अभौतिक तत्व अथवा आत्मा जैसी अवधारणा का उदय अभी यूनानी दर्शन में नहीं हुआ था।)
संदेह के बादल अभी भी छंटे नहीं थे। अग्नि का महत्व कम नहीं है परन्तु एक मात्र अग्नि सारे जगत का कारण कैसे हो सकती है। सिसली के एम्पेडोकलस ने सुझाया कि क्यों न पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु चारों को मूल तत्व मान लिया जाए क्योंकि इन चारों के संयोग-वियोग से सारी वस्तुएं उत्पन्न होती हैं। जब यह प्रश्न उठाया गया कि संयोग-वियोग का कर्ता कौन होगा तो दार्शनिक ने उत्तर दिया कि प्रेम और घृणा क्रमशः संयोग और वियोग कराने वाली शक्तियां हैं।
अवदिरा निवासी दिमोक्रितोस परमाणुवादी सिद्धांत के प्रवर्तक थे। उनके अनुसार द्रव्य पदार्थ और आत्मा परमाणुओं से निर्मित हैं। सभी वस्तुएं परमाणुओं के मिलने से बनती हैं और उनके पृथक-पृथक हो जाने से विनष्ट हो जाती हैं। दिमोक्रितोस के अनुसार आकार, रूप और माप में भिन्न होते हुए भी परमाणु प्रकृत्या शाश्वत और अविभाज्य है। परमाणु एक का साथ छोड़कर दूसरे को साथ सहयोग कर सकता है किंतु विनष्ट नहीं होता।
(भारत में परमाणुवाद के प्रर्वतक कात्यायन थे जिनका जन्म बुद्ध से कुछ वर्ष पहले माना जाता है। भारतीय परमाणुवाद दिमोक्रितोस से प्राचीनतर है। दिमोक्रितोस के परमाणुवाद पर मार्क्सवाद के जनक कार्ल मार्क्स (1818-83 ई0) ने अपना शोध ग्रंथ लिखा था।)
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