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जीवनी/आत्मकथा >> सिकन्दर

सिकन्दर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10547
आईएसबीएन :9781613016343

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जिसके शब्दकोष में आराम, आलस्य और असंभव जैसे शब्द नहीं थे ऐसे सिकंदर की संक्षिप्त गाथा प्रस्तुत है- शब्द संख्या 12 हजार...


सम्भवतः यह भी राजनीतिक आवश्यकता थी जिसने सिकंदर को यह घोषित करने के लिए उकसाया कि उसे देवताओं का प्रतिनिधि माना जाय। अर्धदेवत्व से यूनानियों के नेता और परसिया के सम्राट का वह दुहरा रुतबा हासिल करना चाहता था। पारसीकों ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया क्योंकि जरथुस्त्र धर्म में दैवीकरण का कोई स्थान नहीं था। मकदूनों ने तो इस विचार का मज़ाक उड़ाया। यद्दपि कभी-कभी उन्होंने मनुष्य को देवताओं की तरह माना था लेकिन यह कभी नहीं सुना कि कोई आदमी स्वयं देवत्व धारण करे। देवत्व एक ऐसा सम्मान था जो किसी व्यक्ति को दूसरों के द्वारा दिया जाता है।

मकदूनों और पारसियों को एकीकृत करने के विचार ने मकदूनों पर बहुत थोड़ा प्रभाव डाला। वे सैनिक थे, राजनीतिक या सामाजिक विज्ञानी नहीं थे। सिकंदर की साम्राज्य की अवधारणा सैनिकों की साधारण महात्वाकांक्षाओं से मेल नहीं खा रही थी। सिकंदर के जिम्मेदारी से शासन करने से उनकी कोई सहानुभूति नहीं थी। मकदूनों को लगा कि वह उनके ऊपर स्वयं को स्थापित कर रहा है और पुरानी भाई-चारे की भावना, समता की भावना, जो मकदून सेना की विशेषता थी, नष्ट कर रहा है। उन्हें इस बात का आक्रोश था कि पारसीकों को उनके बराबर समझा जाय जिससे युगों से चला आ रहा यूनानियों और बर्बर पारसीकों का अंतर मिट जाए। अनजाने ही सैनिक कितने करीब थे अरस्तू के दर्शन के, जिससे छिटककर सिकंदर ने विश्व-बधुत्व की अपनी ही दुनिया बनाई थी।

जब सिकंदर ने पारसीक उपाधि ‘शहंशाह’ (राजाओं का राजा) धारण की तो उसने अपने दरबार के लिए पारसीक वेशभूषा और परंपराएं अपनाईं। इनमें विशेष थी प्रोस्कीनिसिस प्रथा जिसके तहत सामाजिक रूप से अपने से वरिष्ठ के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए या तो उसका हाथ चूमना पड़ता था या उसके सामने जमीन पर लेटकर अभिवादन करना पड़ता था। यूनानी मानते थे कि भूमि पर सिर्फ देवताओ के सामने लेटा जा सकता था। इस प्रथा का प्रचलन करके सिकंदर स्वयं को देवताओं की श्रेणी में लाना चाहता था। इससे सिकंदर ने अनेक देशवासियों की सहानुभूति खो दी। अरस्तू कहता था कि एशियाई इस कारण ‘बर्बर’ होते हैं कि उनकी वेश-भूषा चाल-ढाल, परम्पराएं निष्कृष्ट कोटि की होती हैं। आश्चर्य है कि उसके अशिक्षित सैनिक भी इसी दार्शनिक अहमन्यता के शिकार थे।

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