इतिहास और राजनीति >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
शिविर से बाहर निकलकर शेरशाह ने दरिया खां को आदेश दिया कि निरीक्षण के लिए बारूद के गोले लाए जायं। वह खुद एक टीले पर चढ़ गया और किले पर कई बाण छोड़े। इसी बीच दरिया खां गोले ले आया तो शेरशाह नीचे उतर आया। जब उसके सैनिक इन गोलों को दाग रहे थे तभी एक गोला कदाचित् दुर्ग के द्वार के किसी कीले से टकरा वापस आया और उस स्थान पर गिरा जहां जीवित गोलों के पास शेरशाह खड़ा था। वापस लौटे गोले से अन्य सभी गोले एक साथ भड़क उठे और दग गए । शेख खलील, शेख निजाम तथा अन्य सरदार जो वहां खड़े थे बाल-बाल बचे परंतु शेरशाह का शरीर बुरी तरह झुलस गया। उसे घायलावस्था में खेमे में पहुंचाया गया। ईसा खां हाजिब, मसनद खां कालकापुर, ईसा खां के दामाद और सहवास खां परवानी शेरशाह के पास खड़े थे। शेरशाह ने उनसे कहा, ‘‘मेरे जीते जी कालिंजर जीत लो।’’
चारो ओर से चींटियों और टिड्डियों की भांति अफगान सरदारों और सैनिकों ने शत्रु पर आक्रमण कर दिया और तीसरे पहर की नमाज़ तक किला फतह कर लिया। किले के अंदर मिले सारे राजपूतों को मौत के घाट उतार दिया गया। जब शेरशाह को इस विजय का समाचार सुनाया गया तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा उठी। शेरशाह ने अपने पुत्रों और सरदारों को अपने पास बुला लिया। जब वे सब इकट्ठे हो गए तो उन पर एक अंतिम दृष्टि डाली, फिर आंखे बंद कर ली और जीवन का स्पंदन जड़ता में डूब गया।
शेख निजाम ने शिविर से बाहर निकलकर प्रतीक्षारत सैनिकों को भर्राए गले से बताया, ‘‘अजआतिश मुर्द’’ यानी शेरशाह परलोक सिधार गया।
कालिंजर के पास लालगढ़ में शेरशाह के पार्थिव शरीर को दफन कर दिया गया। कुछ समय बाद उसकी अस्थियां सहसराम ले जाई गईं। वहां उसकी कब्र उसके पिता की कब्र के पास उसी रौजे (मकबरे) में बनाई गई जिसका निर्माण स्वयं शेरशाह ने करवाया था। यह रौजा आज भी शेरशाह की याद दिलाता है।
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