इतिहास और राजनीति >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
तो ऐसे हिन्दुस्तान के तत्कालीन प्रथम अफगान बादशाह बहलोल लोदी (1451-88) ने अफगानों को हिन्दुस्तान आने का आवाह्न किया तो वे हिन्दुस्तान पर टूट पड़े। उस समय अफगानों के हिन्दुस्तान आने की तुलना फारसी इतिहासकारों ने ‘‘चीटियों व टिड्डियों के दल’’ से की है।
किस्सा आगे यूं बढ़ता है कि इसी दल में इब्राहिम सूर नामक अफगान भी सपरिवार हिन्दुस्तान आता है। ‘सूर’ अफगानिस्तान का एक कबीला था जो खुद को मुहम्मद गोरी का वंशज मानता था। इब्राहिम के वंशज इसी कबीले के थे। इब्राहिम एक साधारण घोड़ा-व्यापारी था। इसी इब्राहिम के पौत्र फरीद ने, जो बाद में शेरशाह कहलाया, अपनी प्रतिभा और दूरदर्शिता से हिन्दुस्तान में राजवंश की स्थापना की जिसे ‘सूरवंश’ कहा गया। शेरशाह ने हिन्दुस्तान में द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना उस समय की जब मुगल वंश यहां लगभग स्थापित हो चुका था और अफगान-शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई थी। शेरशाह ने अपना साम्राज्य इतना सुदृढ़ कर लिया कि उसने मुगल बादशाह हुमाऊं को हिन्दुस्तान के बाहर खदेड़ दिया और अपने जीते जी उसे वापस नहीं आने दिया और न ही वह वापस आने की हिम्मत कर सका। वास्तव में बाबर ही शेरशाह पर नियंत्रण नहीं रख पाया था। बाबर ने हिन्दुस्तान में मुगल वंश की नींव तो ड़ाली पर उसे सुदृढ़ न कर सका। अपने संक्षिप्त शासन में शेरशाह ने अफगान-राज्य की स्थापना की और उसे सुदृढ़ किया। शेरशाह ने जिस सामरिक तथा प्रशासनिक प्रतिभा का परिचय दिया वह हिन्दुस्तान के इतिहास में ही नहीं प्रत्युत विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। लेकिन अभी हम इब्राहिम पर ही ध्यान केंद्रित रखें।
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