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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781613016374

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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख

हमारा अंगूठा

हमारे हाथ-पैर की सबसे पहली और सबसे मोटी अंगुली को अंगूठा कहा जाता है। व्याकरण की दृष्टि से अंगूठा, फिर वह चाहे स्त्रियों के हाथ का ही क्यों न हो, पुल्लिंग होता है। विपरीत लिंग के प्रति अंगूठा उपेक्षा भाव रखता है इसी कारण अंगुलियों के साथ रहने पर भी वह उनसे दूरी बनाए रखता है। किन्हीं दो अंगुलियों के बीच के स्थान की तुलना में तर्जनी और अंगूठे के बीच की दूरी, जिसे ´प्रादेश´ कहा जाता है, अधिक होती है।

खोज से पता चला है कि अंगूठी मूलरूप से अंगूठे में पहनने के लिए बनाई गई थी- जैसा कि उसके नाम से ही ध्वनित होता है । यह परंपरा घड़ा और ढ़ोलक बजाने वाले कलाकारों में आज भी प्रचलित है। वादन के समय कलाकार अंगूठे में छल्ला पहने रहते हैं जो अंगूठी का आदिम रूप है। जैसे-जैसे विभिन्न नए रत्नों की खोज होती गई, जौहरियों से प्रेरित होकर ज्योतिषियों ने उन्हें अंगूठी में जड़वाकर पहनने की ज्योतिषीय आवश्यकता बतलाई। इससे एकाधिक अंगूठों की जरूरत हुई। अतः अंगूठियों ने अपना अड्डा अंगुलियों पर जमाया और अंगूठे को ठेंगा दिखा दिया।

खैर, अंगूठे के पास अंगूठी धारण करने के अतिरिक्त अन्य विभिन्न काम बचे रहे। महाभारत काल में यह गुरु-दक्षिणा देने के काम आता था। एकलव्य ने गुरु के मांगने पर अपना अंगूठा काटकर दक्षिणा के रूप में प्रस्तुत किया यद्यपि द्रोणाचार्य ने व्यक्तिगत रूप से उसे कोई शिक्षा नहीं दी थी। बौद्धकाल में जब तक्षशिला के एक शिष्य अहिंसक उर्फ अंगुलिमाल द्वारा गुरु को दक्षिणा देने का अवसर आया तो, एकलव्य की त्रासदी ध्यान में रखते हुए, उसने साफ कह दिया कि गुरुवर अंगूठा छोड़कर कुछ भी मांग लें। ब्राह्मण अंगुलिमाल धनुर्धर नहीं था, फिर भी उसने अंगूठे की रक्षा की। तक्षशिला के अन्य शिष्यों की दुरभिसंधि से अंधप्रेरित गुरु ने अंगुलिमाल के ब्राह्मणत्व को नष्ट करने के लिए उससे एक हजार मनुष्यों के वध की दक्षिणा मांगी। शिष्य ने ´तथास्तु´ कहा और चला गया। अपने वचन से बद्ध हो शिष्य जंगल में जाकर राह चलते मानवों का वध करने लगा। एक हजार की संख्या का लेखा रखने के लिए वह वध किए गए मानव की एक अंगुली काट लेता और अपने गले में पड़ी माला में उसे पिरो लेता। इसी कृत्य के कारण उसका नाम अहिंसक से अपकर्षित होकर अंगुलिमाल हो गया। यहां भी उसने यह ध्यान रखा कि वह मृत व्यक्ति का अंगूठा न काटे।

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