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लेख-आलेख

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781613016374

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समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख

ये बेचारे श्रोता

मानव ने जब से बोलना सीखा, उसे श्रोता की जरूरत लगातार तभी से रही है। यह जरूरत तब तक बनी रहेगी जब तक मानव फिर से जानवर नहीं बन जाता। जानवरों में श्रोता नहीं होते। एक के रेंकने, भौंकने या हुआ-हुआ करने पर शेष उपस्थित सभी उनका संभाषण सुनने के बजाय वैसा ही करने लगते हैं। अतः मानवों में से कुछ को छोड़कर सभी, जब तक जीवित रहते हैं, बेचारे श्रोता बने रहते हैं। श्रोता का मतलब है सुनने वाला, फिर यह सुनना चाहे मजबूरी में हो, स्वार्थवश हो या श्रद्धावश। कहा जाता है कि ईसा के सात-आठ सौ वर्ष पूर्व तक भाषा केवल बोलने तक सीमित थी और लेखन को हेय समझा जाता था। यानी उस समय सिर्फ श्रोता ही श्रोता थे, पाठक नहीं। कैसी मजबूरी थी सुनने की।

प्राचीन काल में बड़े धुरंधर श्रोता हुए हैं। ये लोग गुरु-कुल में रहकर नित्य गुरु की वाणी श्रवण करने में जीवन का स्वर्णिम काल-खंड व्यतीत कर देते थे। वे जो सुनते थे उसका बोझ न उठा पाने के कारण उसे किसी और को सुना देते थे, कोई और किन्हीं औरों को। इन्हें हम श्रृंखला-श्रोता कह सकते हैं। इस श्रृंखला की किसी एक कड़ी को विराम तभी मिलता था जब उबकर वह अपने श्रवणित को लिपिबद्ध़ कर देता था। उसे ही आज ´श्रुतियां´ कहा जाता है।

महाभारत काल चूंकि बहुत मारामारी का समय था अतः श्रोता कम मिल पाते थे। धृतराष्ट्र अपने अंधत्व के कारण संजय के उसी प्रकार स्वैच्छिक श्रोता बने जिस प्रकार गांधारी ने स्वेच्छा से आंखों पर पट्टी बांध ली थी। कृष्ण को गीता सुनाने के लिए उस समय अर्जुन के रूप में मात्र एक ही श्रोता मिल पाया था। श्रोता के रूप में अर्जुन का शोषण करने के आरोप से बचने के लिए पूरी गीता में कहीं कहीं अर्जुन को जिज्ञासा के रूप में कुछ बोल लेने का अवसर दिया गया है।

राम को चौदह वर्ष का वनवास यानी एकांतवास भोगना पड़ा। उनके साथ सीता और लक्ष्मण जैसे समर्पित श्रोता यदि न होते तो राम बेचारे कितने बोर हो गए होते, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

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