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जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप

कवि प्रदीप

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10543
आईएसबीएन :9781613016312

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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।


सरल, लचीली और सामान्य भाषा का प्रयोग करते हुए प्रसाद गुण से संपन्न, शांत रस प्रधान एक अन्य गीत लिखा और गाया-

आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की ।
इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की ।

इस प्रकार प्रदीप ने शिक्षाप्रद एवं देशभक्ति प्रधान गीत लिखकर न केवल फिल्म को ही ऊंची दिशा दी वरन् देशभक्ति के अपने गीतों की पताका को और ऊंचा फहरा दिया।  

इसके बाद फिल्मों का ऐसा सिलसिला चला जो उनकी मानसिकता के अनुरूप नहीं था। फिल्म लाइन में थे, सो गीत लिखते रहे। कभी कभी कोई गीत चमक उठता, जैसे- ‘वामन अवतार’ में तेरे द्वार खड़ा भगवान भगत भर दे रे झोली, ‘नागमणि’ में तूने खूब रचा भगवान खिलौना माटी का, ‘चंडी पूजा’ में कोई लाख करे चतुराई, करम का लेख मिटे ना रे भाई, ‘तलाक’ में नई उमर की कलियो तुम्हें देख रही दुनिया सारी! तुम पे पड़ी जिम्मेदारी और कहनी है एक बात हमें इस देश के पहरेदारों से। संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से, ‘दो बहनें’ में मुखड़ा देख ले प्राणी जरा दर्पण में, ‘पैगाम’ में इनसान से इनसान का हो भाई चारा। यही पैगाम हमारा, ‘हरिश्चंद तारामती’ में- जगत भर की रोशनी के लिए, सूरज रे जलते रहना और ‘संबंध’ में चल अकेला चल अकेला, चल अकेला। तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला।

1964 से 1988 तक अपनी प्रदर्शित फिल्मों में से 27 धार्मिक फिल्मों के और 11 सामाजिक व देशभक्ति प्रधान फिल्मों के गीत लिखे जरूर पर एक धार्मिक फिल्म को छोड़कर अन्य फिल्मों के गाने दर्शकों-श्रोताओं के कंठ में नहीं उतर सके। फिल्मों और फिल्म वालों का रवैया बदल रहा था अतः उन्होंने 1988 में फिल्मों में लिखना बंद कर दिया। अब चलन बदल रहा था। पूर्व निर्मित धुनों पर गीत लिखे जा रहे थे। यह ढंग उनकी प्रकृति से मेल नहीं खाता था। ‘चित्रलेखा’ (1964) में उन्होंने गीत लिखने से इसलिए मना कर दिया था कि निर्माता चाहता था कि संगीतकार की धुनों पर गीत लिखे जाएं। उन्होंने कहा था कि मुर्दे का कफन पहले खरीदोगे तो मुर्दे को उसकी साइज का काटना पड़ेगा यह मैं नहीं कर सकता। डा. मधुप पांडेय के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रदीप ने बताया था, ‘‘मैं स्वभाव से अत्यंत संकोची हूं। मुझे अपने आपको प्रदर्शित करने के लिए छल प्रपंच नहीं आता। मैं वर्षों से फिल्म जगत में कार्यरत हूं। लोग कहते हैं वहाँ ‘ये’ करना पड़ता है, ‘वो’ करना पड़ता है मैंने कभी न ‘ये’ किया न वो किया। मैं निरंतर सृजन साधना में लीन रहा।’’

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