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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807
आईएसबीएन :9781613015445

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग

प्रेमचन्द की सभी कहानियाँ इस संकलन के 46 भागों में सम्मिलित की गईं हैं। यह इस श्रंखला का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग है।

अनुक्रम

1. स्वर्ग की देवी
2. स्वांग
3. स्वामिनी
4. हार की जीत
5. हिंसा परमो धर्मः
6. होली का उपहार
7. होली की छुट्टी

1. स्वर्ग की देवी

भाग्य की बात! शादी-विवाह में आदमी का क्या अख्तियार! जिससे ईश्वर ने, या उनके नायबों-ब्राह्मणों ने तय कर दी, उससे हो गयी। बाबू भारतदास ने लीला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोई बात उठा नहीं रखी। लेकिन जैसा घर-वर चाहते थे, वैसा न पा सके। वह लड़की को सुखी देखना चाहते थे, जैसा हर एक पिता का धर्म है; किंतु इसके लिए उनकी समझ में सम्पत्ति ही सबसे जरूरी चीज थी। चरित्र या शिक्षा का स्थान गौण था। चरित्र तो किसी के माथे पर लिखा नहीं रहता और शिक्षा का आजकल के जमाने में मूल्य ही क्या? हाँ, सम्पत्ति के साथ शिक्षा भी हो तो क्या पूछना! ऐसा घर उन्होंने बहुत ढूँढ़ा, पर न मिला। ऐसे घर हैं ही कितने जहाँ दोनों पदार्थ मिलें? दो-चार मिले भी तो अपनी बिरादरी के न थे। बिरादरी भी मिली, तो जायजा न मिला; जायजा भी मिला तो शर्तें तय न हो सकीं। इस तरह मजबूर होकर भारतदास को लीला का विवाह लाला सन्तसरन के लड़के सीतासरन से करना पड़ा।

अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोड़ी-बहुत शिक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले-मुकदमे समझता था और जरा दिल का रँगीला भी था। सबसे बड़ी बात यह थी कि रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्न-मुख, साहसी आदमी था; मगर विचार वही बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी जितनी बातें हैं, सब अच्छी; नयी जितनी बातें हैं, सब खराब। जायदाद के विषय में जमींदार साहब नये-नये दफों का व्यवहार करते थे, वहाँ अपना कोई अख्तियार न था; लेकिन सामाजिक प्रथाओं के कट्टर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते या कहते देखता वही खुद भी कहता और करता था। उसमें खुद सोचने की शक्ति ही न थी। बुद्धि की मंदता बहुधा सामाजिक अनुदारता के रूप में प्रकट होती है।

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