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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग

प्रेमचन्द की सभी कहानियाँ इस संकलन के 46 भागों में सम्मिलित की गईं है। यह इस श्रंखला का उन्तालीसवाँ भाग है।

अनुक्रम

1. विमाता
2. वियोग और मिलाप
3. विश्वास
4. विषम समस्या
5. विस्मृति
6. वेश्या
7. वैर का अंत

1. विमाता

स्त्री की मृत्यु के तीन ही मास बाद पुनर्विवाह करना मृतात्मा के साथ ऐसा अन्याय और उसकी आत्मा पर ऐसा आघात है जो कदापि क्षम्य नहीं हो सकता। मैं यह कहूँगा कि उस स्वर्गवासिनी की मुझसे अंतिम प्रेरणा थी और न मेरा शायद यह कथन ही मान्य समझा जाय कि हमारे छोटे बालक के लिए 'माँ' की उपस्थिति परमावश्यक थी। परन्तु इस विषय में मेरी आत्मा निर्मल है और मैं आशा करता हूँ कि स्वर्गलोक में मेरे इस कार्य की निर्दय आलोचना न की जायगी। सारांश यह कि मैंने विवाह किया और यद्यपि एक नव-विवाहिता वधू को मातृत्व उपदेश बेसुरा राग था, पर मैंने पहले ही दिन अम्बा से कह दिया कि मैंने तुमसे केवल इस अभिप्राय से विवाह किया है कि तुम मेरे भोले बालक की माँ बनो और उसके हृदय से उसकी माँ की मृत्यु का शोक भुला दो।

दो मास व्यतीत हो गये। मैं संध्या समय मुन्नू को साथ ले कर वायु सेवन को जाया करता था। लौटते समय कतिपय मित्रों से भेंट भी कर लिया करता था। उन संगतों में मुन्नू श्यामा की भाँति चहकता। वास्तव में इन संगतों से मेरा अभिप्राय मनोविनोद नहीं, केवल मुन्नू के असाधारण बुद्धि चमत्कार को प्रदर्शित करना था। मेरे मित्रगण जब मुन्नू को प्यार करते और उसकी विलक्षण बुद्धि की सराहना करते तो मेरा हृदय बाँसों उछलने लगता था।

एक दिन मैं मुन्नू के साथ बाबू ज्वालासिंह के घर बैठा हुआ था। ये मेरे परम मित्र थे। मुझमें और उनमें कुछ भेदभाव न था। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी क्षुद्रताएँ, अपने पारिवारिक कलहादि और अपनी आर्थिक कठिनाइयाँ बयान किया करते थे। नहीं, हम इन मुलाकातों में भी अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करते थे और अपनी दुरवस्था का जिक्र कभी हमारी जबान पर न आता था। अपनी कालिमाओं को सदैव छिपाते थे। एकता में भी भेद था और घनिष्ठता में भी अंतर। अचानक बाबू ज्वालासिंह ने मुन्नू से पूछा- 'क्यों तुम्हारी अम्माँ तुम्हें खूब प्यार करती हैं न?

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